छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य वनों के नीचे एक कोयला क्षेत्र है जिसमें 22 कोयला ब्लॉक शामिल हैं। 2010 में केंद्र सरकार ने हसदेव अरण्य को खनन के लिए ‘निषिद्ध’ इलाके के रूप में वर्गीकृत किया था और इनमें से किसी भी ब्लॉक में खनन से इनकार कर दिया था। परन्तु, एक साल बाद, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एम.ओ.ई.एफ.) ने एक कोयला ब्लॉक के खनन के लिए मंजूरी दे दी। वर्तमान में, 22 ब्लॉकों में से सात ब्लॉक विभिन्न कंपनियों को आवंटित किए गए हैं।
आवंटित की गई कंपनियों में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (आर.आर.वी.यू.एन.एल.), आंध्र प्रदेश मिनरल डेवलपमेंट कंपनी (ए.पी.एम.डी.सी.) और छत्तीसगढ़ राज्य बिजली उत्पादन कंपनी (सी.एस.पी.जी.सी.) शामिल हैं। उपरोक्त सभी सरकारी मालिकी वाली कंपनियां हैं।
पिछले कुछ वर्षों में, उस क्षेत्र में कोयला खनन के ख़िलाफ़ लोगों द्वारा शक्तिशाली विरोध प्रदर्शन हुए हैं, क्योंकि इससे पर्यावरण का विनाश हो रहा है, जो नदियों, जंगलों और किसानों के चावल के खेतों पर हानिकारक असर डाल रहा है। संघर्ष के परिणामस्वरूप, छत्तीसगढ़ सरकार को ए.पी.एम.डी.सी. और सी.एस.जी.पी.सी. को जारी खनन लाइसेंस रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन, राजस्थान सरकार के मालिकी वाले तीन ब्लॉकों – परसा, परसा ईस्ट केटे बसन फेज 2 और केटे एक्सटेंशन में खनन जारी है।
कोयला खनन को लेकर उस क्षेत्र के निवासियों का विरोध इतना तीव्र रहा है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा ने जुलाई 2022 में सर्वसम्मति से एक निजी सदस्य प्रस्ताव पारित किया, जिसमें केंद्र सरकार से हसदेव अरण्य जंगलों में सभी खनन परियोजनाओं को रद्द करने के लिए कहा गया। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और विपक्षी भाजपा के सदस्यों ने उस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। हरेक पार्टी ने खनन रोकने की ज़िम्मेदारी दूसरे पर डाल दी। मुख्यमंत्री ने कहा कि चूंकि केंद्र ने खदानों के आवंटन का फ़ैसला किया था, इसलिए केंद्र सरकार को यह तय करना चाहिए कि खनन जारी रहना चाहिए या नहीं। दूसरी ओर, विपक्षी भाजपा ने कहा कि राज्य सरकार को खदान को विकसित और संचालित करने वालों (माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर) को दी गयी मंजूरी वापस लेने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए।
21 दिसंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने हसदेव अरण्य वन में परसा में कोयला खनन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और ब्लॉक के लिए भूमि अधिग्रहण को चुनौती देने वाली याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि, “हम विकास के रास्ते में नहीं आना चाहते और हम इस पर बहुत स्पष्ट हैं।”
इजारेदार पूंजीपतियों का विकास
जब पूंजीपति वर्ग विकास की बात करता है तो इसका मतलब पूंजीवादी विकास होता है – यानि, समाज की भलाई को दांव पर रखकर, इजारेदार पूंजीपतियों की संपत्ति में वृद्धि।
छत्तीसगढ़ में स्थित परसा ईस्ट केटे बसन ब्लॉक को 2007 में आर.आर.वी.यू.एन.एल. को दिया गया था। आर.आर.वी.यू.एन.एल. ने माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर (एम.डी.ओ.) सेवाओं की मांग करते हुए एक निविदा जारी की। इस निविदा को अडानी एंटरप्राइजेज ने जीता था। खनन 2013 में शुरू हुआ। सालाना 20 लाख टन कोयले से शुरुआत करते हुए यहां 2017 के बाद से सालाना 1.5 करोड़ टन कोयले का उत्पादन हो रहा है।
छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में कई कोयला खदानें माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर (एम.डी.ओ.) मॉडल के अनुसार चलाई जा रही हैं। इस मॉडल के अनुसार, कोयला ब्लॉक मालिक पूरे संचालन को एक तीसरे पक्ष को अनुबंध (ठेके) पर देता है, जो उसमें निवेश करके उस खदान के खनन, विकास और संचालन की ज़िम्मेदारी लेता है। इसके बाद वह खदान मालिकी वाले राज्य बिजली बोर्डों के बिजली संयंत्रों को निविदा में निर्धारित मूल्य पर कोयले की आपूर्ति करता है।
एम.डी.ओ. मॉडल राज्य बिजली बोर्डों, जो खदानों के नाममात्र के मालिक हैं, को लूटकर अधिकतम मुनाफ़ा कमाने के लिए पूंजीपतियों का हथकंडा बन गया है। अनुबंध की शर्तों को जनता से गुप्त रखा जाता है।
इस मामले में, सार्वजनिक रूप से यह जाना जाता है कि अनुबंध के अनुसार, राजस्थान विद्युत बोर्ड केवल उस कोयले की ख़रीदी करेगा जिसमें कम से कम 4,000 किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम की ऊर्जा सामग्री होगी। कम ऊर्जा सामग्री वाले कोयले को अस्वीकार कर दिया जाता है।
परसा केटे माइंस सालाना 1.5 करोड़ टन कोयले का उत्पादन करती है। 2021 में राजस्थान सरकार द्वारा संचालित बिजली संयंत्रों को 11 मिलियन टन कोयला भेजा गया था। चार मिलियन टन – कुल उत्पादित कोयले के लगभग 26 प्रतिशत – को ख़ारिज घोषित किया गया था।
सरकारी और निजी बिजली संयंत्रों में इस्तेमाल होने वाले कोयले की औसत गुणवत्ता 3,400 किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम है। छत्तीसगढ़ में निजी उद्योग इससे भी कम ऊर्जा सामग्री वाले कोयले का उपयोग करते हैं। इसलिए राजस्थान राज्य द्वारा अस्वीकार घोषित किए गए अधिकांश कोयले का वास्तव में उपयोग किया जा सकता है और निजी मालिकी वाले बिजली संयंत्रों द्वारा उपयोग किया जा रहा है।
निजी स्वामित्व वाली कोयला खदानों में कोयले के उत्पादन की लागत लगभग 800 रुपये प्रति टन होने का अनुमान है। राजस्थान विद्युत बोर्ड ने अपनी खदानों से मिले कोयले के लिए 2,175 रुपये प्रति टन का भुगतान किया।
ज्यादातर ख़ारिज किए गए कोयले को खदानों से छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अडानी पावर की मालिकी वाले बिजली संयंत्रों में भेजा गया है। इसमें अडानी पावर की मालिकी वाले थर्मल पावर स्टेशन, रायपुर एनर्जेन, को भेजा गया 26 लाख टन कोयला भी शामिल है, जिसने उस कोयले के लिए सिर्फ 450 रुपये प्रति टन का भुगतान किया था।
यदि निजी बिजली संयंत्र इस कोयले का उपयोग कर सकते हैं, तो राजस्थान में राज्य की मालिकी वाले बिजली संयंत्र भी ऐसा कर सकते हैं। 2021 में कोयले का बाज़ार मूल्य 7000 रुपये प्रति टन से अधिक था। इस प्रकार राजस्थान सरकार ने लगभग 2,800 करोड़ रुपये के बाज़ार मूल्य वाला 4 मिलियन टन कोयला अडानी एंटरप्राइजेज को लगभग मुफ्त में सौंप दिया।
राजस्थान सरकार और अडानी समूह के बीच ठेके को इस प्रकार से बनाया गया है ताकि निजी इजारेदार पूंजीवादी समूह अपने मुनाफ़े को अधिकतम कर सकें। यह इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा सरकारी खजाने की लूट की जा रही है!
यह पूरे देश में राज्य बिजली बोर्डों के साथ हो रहा है। इसी तरह के अनुबंध अन्य राज्यों के राज्य बिजली बोर्डों द्वारा विभिन्न इजारेदार पूंजीपतियों के साथ किए गए हैं।
हिन्दोस्तानी राज्य इजारेदार पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़े कमाने की इच्छा को पूरा करने के लिए काम करता है। राज्य के सभी अंग – केंद्र और राज्य सरकारें, न्यायपालिका, संसद और राज्य विधान सभाएं, हुक्मरान वर्ग की प्रमुख पार्टियां – इजारेदार पूंजीवादी लालच को पूरा करने के लिए वचनबद्ध हैं।
लोग इस भ्रम में नहीं रह सकते कि मौजूदा व्यवस्था के चलते, उनके हितों की हिफ़ाज़त की जा सकती है। इस व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग के हाथों में है। हमें एक ऐसी नई व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से मज़दूरों और किसानों की एकता का निर्माण करना होगा, जिसमें राजनीतिक सत्ता मज़दूरों और किसानों के हाथों में होगी। तब हम यह सुनिश्चित करने में सक्षम होंगे कि अर्थव्यवस्था पूरे समाज की बढ़ती भौतिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में चलायी जायेगी। तब हम यह सुनिश्चित कर पाएंगे कि पूंजीवादी लालच के कारण प्राकृतिक वातावरण नष्ट नहीं होगा।