सोवियत संघ के गठन की शताब्दी पर :
एक बहुराष्ट्रीय श्रमजीवी लोकतांत्रिक राज्य जिसने सभी लोगों के राष्ट्रीय अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की

इस साल 30 दिसंबर को सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यू.एस.एस.आर.) के गठन के 100 साल पूरे हो गए। उसे रूसी, यूक्रेनी, बेलारूसी और ट्रांसकाकेशियाई सोवियत गणराज्यों द्वारा, स्वेच्छा के आधार पर एक साथ आने के परिणामस्वरूप, गठित किया गया था। वे गणराज्य राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय राज्य थे जिनके राष्ट्रों और लोगों को 1917 की महान अक्तूबर क्रांति के कारण सरमायदारों के शासन से मुक्ति मिली थी। वे सब मिलकर पूंजीवाद से समाजवाद के रास्ते पर चल पड़े थे और उनमें राज्य सत्ता सोवियतों के हाथों में थी। सोवियत शहरों और ग्रामीण इलाकों में मेहनतकश लोगों के राजनीतिक जन संगठन थे।

30 दिसंबर, 1922 की सुबह को हजारों लोगों ने अपनी विभिन्न रंगों की राष्ट्रीय वेशभूषा पहनकर मॉस्को के बोल्शोई थिएटर में प्रवेश किया। उनमें शामिल थे – रूसी शहरों और गांवों से आये प्रतिनिधि, यूक्रेन के लोगों के बेटे और बेटियां, बाइलोरशिया के कारखानों तथा खेतों के प्रतिनिधि, बहुराष्ट्रीय काकेशस और कई अन्य राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के प्रतिनिधि। कुल मिलाकर 2,215 प्रतिनिधि इस मीटिंग में शामिल हुये थे।

श्रमजीवी वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी की अगुवाई में, सरमायदारों के शासन के तख्तापलट और सोवियत सत्ता की स्थापना से उस स्वेच्छा पर आधारित संघ की स्थापना की आवश्यकता पैदा हुई और संभावना भी।

साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिक्रान्तिकारी हमले को हराने के लिए सभी सोवियत गणराज्यों का एक होना आवश्यक था। यह श्रमजीवी वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी के अंतर्राष्ट्रीयतावाद के कारण संभव हुआ। यह सभी उत्पीड़ित लोगों के दिलो-दिमाग में लेनिन के नेतृत्व वाली बोल्शेविक पार्टी द्वारा जीते गये सम्मान का परिणाम था।

बोल्शेविक पार्टी श्रमजीवी वर्ग के उच्चतम हितों का प्रतिनिधि थी। श्रमजीवी वर्ग को सरमायदारों को हराने के लिये सभी उत्पीड़ित लोगों को एकजुट करने की ज़रूरत थी। बोल्शेविक पार्टी ने सभी सोवियत गणराज्यों को स्वेच्छा पर आधारित संघ में एकजुट करने पर अपना पूरा ज़ोर लगाया। मेहनतकश लोगों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में हुई उन्नति की वजह से अन्य राष्ट्र और लोग समाजवाद के निर्माण की इस ऐतिहासिक परियोजना में शामिल होने के लिए प्रेरित हुये।

आने वाले वर्षों में कई और राष्ट्र स्वेच्छा से सोवियत संघ में शामिल हुए। 1940 तक, सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ में 16 संघ गणराज्य और बहुत से स्वायत्त गणराज्य, स्वायत्त क्षेत्र और कई इलाके शामिल हो गये थे।

फरवरी 1935 में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ की सोवियतों के सातवें महाअधिवेशन में 1924 के संविधान को बदलने का फ़ैसला लिया गया। यह फ़ैसला उस हक़ीक़त पर आधारित था कि पिछले एक दशक में, वहां व्यापक परिवर्तन हुए थे। देश के भीतर, अलग-अलग वर्गां के आपसी संबंध पूरी तरह बदल गये थे। एक नये समाजवादी उद्योग का निर्माण हुआ था। पूंजीवादी किसानों का वर्ग अब एक अलग वर्ग बतौर मौजूद नहीं था। सामूहिक खेती की व्यवस्था की जीत हो गई थी। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रत्येक शाखा में उत्पादन के साधनों पर समाजवादी मालिकी स्थापित हो चुकी थी।

समाजवाद की जीत की वजह से चुनावी व्यवस्था को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने की संभावना पैदा हुई और ऐसा करने की ज़रूरत भी पैदा हुई। वक़्त का तकाज़ा था कि गुप्त मतदान के साथ-साथ सर्वव्यापी, समान और प्रत्यक्ष मताधिकार की शुरुआत की जाए।

सोवियत संघ का नया संविधान 1936 में अपनाया गया था, जिसे जोसेफ स्टालिन की अध्यक्षता में गठित संविधान आयोग द्वारा तैयार किया गया था। उसके मसौदे को लोगों के बीच राष्ट्रव्यापी चर्चा के लिए रखा गया, और वह चर्चा साढ़े पांच महीने तक चली। 1,50,000 से भी अधिक लोगों ने लिखित सुझाव दिये। कॉमरेड स्टालिन ने खुद दसों-हजारों लोगों के पत्रों को पढ़ा। उसके बाद मसौदे को संपादित किया गया और सोवियत संघ के असाधारण आठवें महाअधिवेशन में पारित करने के लिये प्रस्तुत किया गया।

1936 का संविधान, जिसे स्टालिन संविधान के नाम से भी जाना जाता है, उसने राष्ट्रीय अधिकारों सहित, व्यक्तिगत और सामूहिक लोकतांत्रिक अधिकारों की  परिभाषा और गारंटी और मजबूत किया। उस संविधान ने प्रत्येक प्रौढ़ नागरिक को रोज़गार का अधिकार, सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का अधिकार, वृद्धावस्था में सुरक्षा का अधिकार सुनिश्चित किया। साथ ही साथ, उस संविधान ने लोगों को चुनने और चुने जाने के अधिकार और जनसंगठनों या राजनीतिक पार्टियों द्वारा मनोनीत उम्मीदवारों में से अपनी पसंद के उम्मीदवार का चयन करने के अधिकार सुनिश्चित किये।

फ़ैसले लेने की उच्चतम शक्ति सुप्रीम सोवियत के हाथों में निहित थी, जिसमें दो सदन थे। एक लोगों का सदन था और दूसरा राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं का सदन था, जिसमें संघ के प्रत्येक घटक गणराज्य से समान संख्या में प्रतिनिधि शामिल थे। इसी प्रकार से हरेक स्वायत्त गणराज्य से समान संख्या में, पर कुछ कम प्रतिनिधि थे और हरेक स्वायत्त इलाके से भी। राज्य के ढांचे में सभी बड़े और छोटे राष्ट्रों की समानता के असूल की ठोस अभिव्यक्ति थी।

सोवियत संघ की श्रमजीवी अंतर्राष्ट्रीयवादी नीति ही उस उल्लेखनीय आत्मविश्वास और मौत को चुनौति देने वाले साहस का आधार थी, जिसे सोवियत संघ की लाल सेना और लोगों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रदर्शित किया था। उन्होंने पूरे सोवियत संघ को नाज़ी-फासीवादी कब्ज़ाकारियों के चंगुल से आज़ाद कराया था। उन्होंने नाज़ी-जर्मनी और उसके सहयोगियों को भीषण चोट पहुंचाने में सबसे निर्णायक भूमिका निभाई थी और फासीवादी कब्ज़े से यूरोप की मुक्ति में एक निर्णायक योगदान दिया था। फासीवादी धुर्री से जुड़े देशों की हार और द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, सोवियत संघ दुनिया में एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य के सबसे बेमिसाल उदाहरण के रूप में सामने आया।

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 1956 में हुये 20वें महाअधिवेशन से जो संशोधनवादी मोड़ शुरू हुआ था, उसने समाजवाद के पतन और सोवियत संघ में पूंजीवाद की पुनः स्थापना के हालात पैदा किये। अगले कुछ दशकों में, उसने सोवियत लोकतंत्र के पतन तथा राष्ट्रीय दमन और पूंजीवाद व सरमायदारी शासन की दूसरी सभी बुराइयों के फिर से स्थापित होने के हालात पैदा किये। उसके परिणामस्वरूप संघ के भीतर व्यापक असंतोष फैला। इस प्रकार, सोवियत संघ एक सामाजिक-साम्राज्यवादी राज्य बन गया, जो कहने को तो समाजवादी था पर कार्यां में साम्राज्यवादी।

सोवियत संघ में पूंजीवाद की पुनः स्थापना और उसके एक सामाजिक-साम्राज्यवादी राज्य बन जाने के बावजूद, संविधान द्वारा राष्ट्रों के आत्मनिर्धारण के अधिकार की गारंटी क़ायम रही। यही कारण था कि 1991 में, रूस, यूक्रेन, जॉर्जिया और सोवियत संघ के कई अन्य घटक शांतिपूर्वक, बिना किसी खून-खराबे के, अलग-अलग स्वतंत्र राज्य बन सके। यह बहुत ही स्पष्ट रूप से साबित करता है कि उनमें से प्रत्येक गणराज्य को वास्तव में सोवियत संघ से अलग होने का अधिकार प्राप्त था और वे इस अधिकार का स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर सकते थे।

सोवियत संघ में हर राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अधिकारों की गारंटी बहुराष्ट्रीय सरमायदार राज्यों के अंदर राष्ट्रीय अधिकारों के हनन से बिल्कुल उल्टा है। हिन्दोस्तानी संघ, ब्रिटेन, कनाडा या किसी अन्य सरमायदार राज्य में राष्ट्रों और लोगों के लिए, इस तरह शांतिपूर्ण ढंग से अलग होने की चिंता तक नहीं की जा सकती है।

उन्नत पूंजीवादी देशों और हिन्दोस्तान जैसे तथाकथित उभरते पूंजीवादी देशों के सरमायदार राज्य अपने क्षेत्र के अंदर स्थित राष्ट्रों के आत्मनिर्धारण के अधिकार का न तो आदर करते हैं और न ही इसकी रक्षा करते हैं। उन राज्यों के संविधान इस अधिकार की गारंटी नहीं देते हैं।

हमारे देश में कोई भी राष्ट्र, राष्ट्रीयता या लोग जो अपने आत्मनिर्धारण के अधिकार की मांग करते हैं, उन्हें हिन्दोस्तान की एकता और अखंडता का दुश्मन माना जाता है। राष्ट्रीय आंदोलनों को “क़ानून और व्यवस्था” की समस्या माना जाता है और उनका क्रूर दमन किया जाता है।

सरमायदार अन्य वर्गों और उत्पीड़ित राष्ट्रों व लोगों के अधिकारों को कुचलकर अपनी राज्य सत्ता को क़ायम करते हैं। वे उत्पीड़ित राष्ट्रों व लोगों की भूमि पर कब्ज़ा करते हैं और उसे लूटते हैं। इसके बिलकुल विपरीत, श्रमजीवी वर्ग हरेक घटक राष्ट्र और राष्ट्रीयता के लोगों के स्वयं अपना भविष्य निर्धारित करने के अधिकार की रक्षा करते हुये, समाजवाद का निर्माण करने की अपनी परियोजना को लागू करता है। सोवियत संघ में विकास का दिशा-निर्देश करने वाले श्रमजीवी वर्ग और उसकी पार्टी ने इसे बढ़िया तरीके से प्रदर्शित किया था।

सोवियत संघ का गठन आज भी एक बहुराष्ट्रीय राज्य की अद्भुत मिसाल है, जो अपने सभी घटकों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है और उनके पारस्परिक हितों के लिए काम करता है। हमारे देश में कई राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोग बसे हुये हैं। हमारे लिये सोवियत संघ के अनुभव से सीखने के लिये अनेक अनमोल सबक हैं।

सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि वर्तमान उपनिवेशवादी शैली पर आधारित हिन्दोस्तानी संघ के स्थान पर एक स्वैच्छिक संघ का निर्माण करना ही एकमात्र तरीका है, जिसके ज़रिये देश के राष्ट्रीय प्रश्न को हल किया जा सकता है और समाज को संकट से बाहर निकाला जा सकता है। हम हिन्दोस्तानी कम्युनिस्टों को गणराज्यों के एक स्वैच्छिक संघ के ज़रिये, मज़दूरों और किसानों की हकूमत स्थापित करने के नज़रिये के साथ वर्ग संघर्ष करना होगा।

30 दिसंबर, 1922 को की गई घोषणा के कुछ अंश

सोवियत गणराज्यों के गठन के बाद, दुनिया दो खेमों में बंट गई – पूंजीवादी और समाजवादी।

पूंजीवादी खेमे में राष्ट्रीय दुश्मनी और असमानता, उपनिवेशवादी गुलामी, उग्र राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय दमन, जनसंहार और साम्राज्यवादी क्रूरता का शासन है।

यहां, समाजवादी खेमे में, आपसी विश्वास और शांति, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समानता, और लोगों का शांतिपूर्ण सहवास व भ्रात्रीय सहयोग पाया जाता है। … सरमायदारों ने यह साबित कर दिया है कि वे राष्ट्रों के आपसी सहयोग को क़ायम करने में नाक़ामयाब हैं।

केवल सोवियत खेमे में और श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व के तहत बहुसंख्यक आबादी के लामबंध होने से ही, राष्ट्रीय उत्पीड़न को जड़ से उखाड़ना, आपसी भारोसे के हालात पैदा करना और भ्रात्रीय सहयोग की नींव डालना मुमकिन हुआ है। केवल इसी हक़ीक़त की वजह से सोवियत गणराज्य विश्व साम्राज्यवाद के अंदरूनी और बाहरी हमलों को हरा सके, गृहयुद्ध को सफलतापूर्वक समाप्त कर सके, खुद को सही-सलामत रख सके और शांतिपूर्ण आर्थिक निर्माण के काम में आगे बढ़ सके।

सोवियत गणराज्यों के लोगों का मत, जो उनके सोवियतों के हाल में हुये महाअधिवेशनों में प्रकट होता है, यही इस बात की भरोसेमंद गारंटी है कि सोवियत संघ समान लोगों का स्वेच्छापूर्ण संघ है, कि इस संघ के द्वार सभी समाजवादी सोवियत गणराज्यों के लिये खुले हैं … कि यह नया संयुक्त राज्य अक्तूबर 1917 में शुरू हुये, शांतिपूर्ण कम्युनिज़्म और लोगों के भ्रात्रीय सहयोग को स्थापित करने के संघर्ष की उचित संपूर्णता होगी, कि यह राज्य विश्व साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ एक शक्तिशाली दीवार बनकर खड़ा होगा और एक विश्व समाजवादी सोवियत गणराज्य के अंदर सभी देशों के मज़दूरों की एकता स्थापित करने की दिशा में एक निर्णायक क़दम होगा।

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