15 अगस्त को आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ पर, 2002 के गुजरात जनसंहार के दौरान सामूहिक बलात्कार और हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार अपराधियों में से 11 लोगों को रिहा कर दिया गया। 2008 में उन सभी को एक गर्भवती महिला बिलकीस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या के जघन्य अपराध के लिए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। उन्होंने उसके परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भी बलात्कार किया था और उसके तीन साल के बच्चे का सिर पत्थर पर पटककर उसकी हत्या कर दी थी।
फरवरी 2002 में शुरू हुआ गुजरात जनसंहार एक सुनियोजित सामूहिक अपराध था। चश्मदीद गवाहों के बयानों और अनेक चिंतित नागरिकों द्वारा की गयी जांच से पता चला कि हिंसा की बर्बर वारदातों को ऐसे गिरोहों द्वारा अंजाम दिया गया था जिन्हें प्रशासनिक और पुलिस तंत्र का समर्थन प्राप्त था। गुजरात में उस समय सरकार की कमान संभालने वाली भाजपा ने मुसलमानों से बदला लेने के लिए लोगों को उकसाया था। गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में हुई आगजनी के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया गया था, इस आगजनी में अयोध्या से लौट रहे कई कारसेवक मारे गए थे। उस त्रासदी के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा कई हफ्तों तक चली और हजारों लोगों की मौत हो गई। इस दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और बच्चों को अनाथ कर दिया गया।
बिलकीस बानो 20 साल पहले हुए उस सामूहिक अपराध के शिकार लोगों में से एक थी। उन्होंने अपनी जान को ख़तरा होते हुए भी, सभी मुश्किलों का सामना करते हुए इंसाफ की लड़ाई लड़ी। उन्हें खुद को ज़िन्दा बचाये रखने के लिए बार-बार अपना निवास स्थान बदलना पड़ा। जिन लोगों ने उनके साथ बलात्कार किया था और उनके बच्चे और परिवार के अन्य सदस्यों को मार डाला था, अंततः 2008 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन सभी को दोषी करार दिया था। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
कई पार्टियों और जानी-मानी हस्तियों ने, इस समय इन 11 दोषियों को रिहा करने की प्रक्रिया को, इंसाफ का खुल्लम-खुल्ला मजाक बनाने जैसी हरक़त बताया है और उसकी सख़्त निंदा की है। सामूहिक बलात्कार और कत्लेआम जैसे जघन्य अपराध के लिए ज़िम्मेदार मुजरिमों की रिहाई, इंसाफ के सभी सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। यह एक ऐसा क़दम है जो सभी नागरिकों को एक बार फिर इस हक़ीक़त से वाकिफ कराता है कि हमारे देश में सांप्रदायिक हिंसा के शिकार इंसाफ की उम्मीद नहीं कर सकते। क़ानून उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करता है।
यह हक़ीक़त कि सरकार चलाने वाली पार्टियां न केवल इतने भयानक अपराध करने की जुर्रत कर सकती हैं बल्कि अपने खुदगर्ज हितों के लिए, मौजूदा न्याय प्रणाली का मनमाने तरीक़े से इस्तेमाल भी कर सकती हैं, और यह इस कड़वी सच्चाई को भी उजागर करती है कि तथाकथित कानून का शासन (रूल ऑफ लॉ) एक धोखा, एक भ्रम है। क़ानून के समक्ष समाज के सभी सदस्य समान नहीं हैं। जिन्हें शासक वर्ग का समर्थन प्राप्त है, वे क़ानून से ऊपर हैं।
हमारे देश में ऐसे हजारों लोग हैं जो जेलों में बंद हैं, जिनके ऊपर न तो किसी अपराध के संबंध में कोई मुकदमा चलाया गया है और न ही उन्हें किसी गुनाह का दोषी ठहराया गया है। हक़ीक़त तो यह है कि सबसे जघन्य अपराधों के दोषी आमतौर पर पकड़े ही नहीं जाते हैं। केवल कुछ लोग जिनको जघन्य अपराधों के लिए दोषी ठहराया भी जाता है उनको उनके राजनीतिक मालिकों द्वारा रिहा कर दिया जाता है। दूसरी ओर, गुजरात में हुये क़त्लेआम के पीड़ितों के लिए इंसाफ दिलाने के लिए साहसी संघर्ष करने वालों को जेल में डाल दिया गया है। उन पर गुजरात सरकार को बदनाम करने का आरोप लगाया गया है, जिसने कथित तौर पर फरवरी-मार्च 2002 में हिंसा को रोकने की पूरी कोशिश की थी।
क़ानून, मेहनतकशों पर अत्याचार करता है। हिन्दोस्तानी राज्य, जिससे सभी नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है, वह राज्य लगातार उन लोगों की रक्षा करता आया है जो लोगों के अधिकारों को पैरों तले रौंदते हैं, जो बेकसूर नागरिकों का बलात्कार और हत्या करते हैं।
शासक वर्ग और उसके राजनेता चाहते हैं कि लोग विश्वास करें कि बिलकीस मामले के गुनाहगारों की रिहाई एक असामान्य घटना है। हालांकि, हमारे जीवन के अपने अनुभव से पता चलता है कि यह कोई असामान्य घटना नहीं है। सांप्रदायिक हिंसा के शिकार पीड़ितों को न्याय से वंचित करना कोई अपवाद नहीं है। यह देश का सामान्य नियम रहा है।
1984 में केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी जब दिल्ली और कई अन्य स्थानों पर सिखों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। उस सामूहिक क़त्लेआम के शिकार लोगों को भी इंसाफ पाने के लिए एक लंबा संघर्ष करना पड़ा। संसद में प्रमुख पार्टियां, नौकरशाही, सुरक्षा बल और न्यायपालिका सभी पीड़ितों के ख़िलाफ़ थे।
1984 के क़त्लेआम के पीछे जो मास्टरमाइंड थे उनको कभी सज़ा नहीं मिली। इसी अन्याय की पुनरावृत्ति में 2002 में हुए गुजरात क़त्लेआम के पीछे जो मास्टरमाइंड थे उनको भी कोई सजा नहीं मिली। यहां तक कि सबसे निचले स्तर पर जो इस क़त्लेआम में शामिल थे और जिनको अपने गुनाहों के लिए दोषी भी ठहराया गया था, उन्हें अब रिहा कर दिया गया है। सांप्रदायिक हिंसा के और भी कई उदाहरण हैं और किसी भी मामले में इसे आयोजित करने वालों को न ही दोषी ठहराया गया है और न ही उनको कोई सज़ा मिली है। बड़े पूंजीपतियों के धनबल से पोषित पार्टियां, सांप्रदायिक हिंसा को आयोजित करने के लिए राज्य-तंत्र का इस्तेमाल करती हैं और जाहिर है कि उनको इन अपराधों की सज़ा नहीं मिलती।
जब भी सांप्रदायिक हिंसा होती है, इसे आधिकारिक तौर पर “दंगे” के रूप में दर्ज किया जाता है। जिसका मक़सद इस सच्चाई को छुपाना होता है कि इसे राजनीतिक उद्देश्यों के तहत आयोजित किया गया था। 1984 और 2002 दोनों में, जिस पार्टी की सरकार थी, उसने क़त्लेआम के बाद हुए चुनावों में पूर्ण बहुमत हासिल किया। सांप्रदायिक हिंसा का आयोजन करने वालों को उच्च पदों से पुरस्कृत किया गया।
इन सामूहिक अपराधों के आयोजन का राजनीतिक मक़सद इस या उस पार्टी की चुनावी महत्वाकांक्षाओं तक ही सीमित नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सांप्रदायिक हिंसा शासक वर्ग के हितों की सेवा करती है। यह मेहनतकश और शोषित बहुसंख्यक आबादी को, अपने सांझे दुश्मन, लोगों पर शोषण और अत्याचार करने वाले इजारेदार पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले पूंजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ एकजुट होने से रोकने का काम करता है।
ब्रिटिश राज से “फूट डालो और राज करो” की रणनीति और तरीक़े को विरासत में पाने के बाद से हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ने राज करने के इन तरीक़ों को क़ायम रखा है और उन्हें और भी बेहतर तरीके से लागू करके अपनी हुकूमत को चलाने के लिए कारगर पाया है। राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और सांप्रदायिक घृणा को भड़काना, हमारे देश की राजनीतिक प्रक्रिया और शासन पद्धति का एक अभिन्न अंग बन गया है।
वक्त की मांग है कि सभी कम्युनिस्ट, सभी प्रगतिशील व लोकतांत्रिक संगठन और लोग एकजुट होकर सभी के लिए इंसाफ हासिल करने के अपने संघर्ष को बहादुरी से और भी आगे ले जाएं।
हम लोग हिन्दोस्तानी राज्य की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के बारे में कोई भ्रम नहीं रख सकते। संविधान के अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को ज़मीर का हक़ है, कि वह अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने और प्रचार करने के लिए स्वतंत्र है। सांप्रदायिक हिंसा की बार-बार वारदातें, जिसके दौरान लोगों पर उनके धर्म के आधार पर सुनियोजित तरीक़ों से हमला किया जाता है और उनका क़त्लेआम किया जाता है, यह साबित करता है कि मौजूदा राज्य वास्तव में ज़मीर के हक़ की रक्षा नहीं करता है।
हमें मांग करते रहना चाहिए कि गुनहगारों को सज़ा मिले। बलात्कार और हत्या को आयोजित करने, उकसाने और ऐसे अपराधियों को संरक्षण देने वालों को भी उतने ही संगीन और जघन्य अपराधों का दोषी माना जाना चाहिए जितना कि उन कृत्यों को हक़ीक़त में अंजाम देने वाले गुनहगारों को माना जाता है। जिन लोगों ने कमान संभाली है और जो सरकार चलाते हैं, उनका कर्तव्य लोगों के जीवन और सम्मान की रक्षा करना है और इसलिए उन्हें उनकी कमान के तहत किए गए अपराधों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। उन पर लोगों के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहने के अपराध का आरोप लगाया जाना चाहिए। जब तक सभी गुनहगारों को सज़ा नहीं मिलती तब तक इस तरह के जघन्य अपराधों का अंत नहीं होगा।
अपने इंसाफ के संघर्ष की जीत तब होगी जब इजारेदार पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले पूंजीपति वर्ग के शासन को मेहनतकश जनता के शासन में बदल दिया जाएगा। पूरी तरह से सांप्रदायिक मौजूदा राज्य को तब एक ऐसे राज्य में बदला जाएगा जो हर व्यक्ति के ज़मीर के अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, एक ऐसा राज्य जो यह सुनिश्चित करेगा कि महिलाओं पर अत्याचार और बुरा सलूक करने वाले या किसी भी व्यक्ति के मानवाधिकारों की अवहेलना करने वाले गुनाहगारों को तुरंत और कड़ी से कड़ी सज़ा मिले।