संपादक महोदय,
आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ, लेख को पढ़ने के बाद अगर पीछे मुड़कर देखें तो मन थोड़ा उदास हो जाता है कि शायद 75 वर्ष पहले और उसके बाद भी कई बार देश में ऐसे हालात बने जब देश में कम्युनिस्टों के द्वारा मज़दूरों और किसानों का राज स्थापित किया जा सकता था। परन्तु यह हो न पाया, उसके लिये आज हमें बिल्कुल अफ़सोस करने की ज़रूरत नहीं है कि उन वक्तों में कम्युनिस्ट आंदोलन नाकाम रहा। हमें अपने-अपने क्षेत्रों में लोगों को भरोसा दिलाना है और उन्हें जागरुक करने की ज़रूरत है कि आज भी हिन्दोस्तान ब्रिटिश व्यवस्था का गुलाम है। बेशक हम आज़ादी से रहते हैं पर हम अपने हक़ों के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते हैं।
1947 में उपनिवेशवादी विरासत को कुछ धनी मुट्ठीभर भारतीयों के हाथों में सौंपा गया क्योंकि उस वक्त उपनिवेशवादी शासकों ने भांप लिया था कि अगर वे राजगद्दी नहीं छोड़ेंगे तो कोई बड़ा क्रान्तिकारी बदलाव आ जायेगा। आज़ादी के तुरंत बाद ही कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट पार्टियों पर दमन शुरू करना इस बात को सिद्ध करता है कि कम्युनिस्ट आंदोलन एक बड़े परिवर्तन की स्थिति में था।
इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दोस्तान में पूरी राजनीतिक प्रक्रिया में ब्रिटिश राज का ही छाप है। पहले हिन्दोस्तानी लोगों का शोषण ब्रिटिशों द्वारा उपनिवेशवादी विरासत को बचाने के लिए किया जाता था और आज सिर्फ कुछ मुट्ठीभर बड़े हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा अपने मज़दूर-किसान भाइयों के श्रम का शोषण होता है, ताकि उनका राज क़ायम रहे।
मज़दूर वर्ग के आज़ाद हिन्दोस्तान का सपना वो है जिसे हमारे शहीद साथियों ने देखा था – एक ऐसा समाज हो जहां लोगों के द्वारा लोगों का शोषण न हो। हमें हिन्दोस्तान के नव-निर्माण के लिए अपने मज़दूर-किसान भाइयों को जागरुक करना और सभी को एक मंच पर लांमबंध करना होगा।
रोशन, नई दिल्ली