यह हिन्दोस्तान में बिजली पर वर्ग संघर्ष के लेखों की श्रृंखला में तीसरा लेख है।
आज हमारे देश में बिजली के उत्पादन और वितरण के संबंध में आधिकारिक स्थिति, सरकार द्वारा 1947 में घोषित की गई स्थिति के विपरीत है। उस समय यह घोषणा की गई थी कि सभी को और पूरे देश में सस्ती दर पर बिजली प्रदान करने की पूरी ज़िम्मेदारी राज्य को लेनी चाहिए। बिजली क्षेत्र के लिए इस नीति को पूरी तरह से क्यों पलट दिया गया है? इस प्रश्न का हल ढूंढने के लिए, हमारे देश में पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के संदर्भ में बिजली क्षेत्र के विकास के इतिहास का अध्ययन करना आवश्यक है।
जब हिन्दोस्तान 1947 में स्वतंत्र हुआ था, तब देश में बिजली उत्पादन की क्षमता केवल 1,362 मेगावाट थी। मुख्य रूप से बिजली का उत्पादन और वितरण निजी कंपनियों द्वारा किया जाता था। केवल कुछ शहरी केंद्रों में ही बिजली उपलब्ध होती थी। ग्रामीण क्षेत्रों और गांवों में बिजली नहीं थी। बिजली ऊर्जा क्षेत्र के उत्पादन और वितरण में तेज़ी से वृद्धि करना अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पूंजीवाद के विकास के लिए एक आवश्यकता थी।
1947 के बाद, बिजली क्षेत्र के लिए अपनाई गई नीति, बॉम्बे प्लान नामक दस्तावेज़ के अनुरूप तैयार की गई थी। इस प्लान को टाटा, बिरला और अन्य बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा 1944-45 में तैयार किया गया था। उस समय, हिन्दोस्तान के सबसे धनी पूंजीपतियों के पास भी ऊर्जा, भारी उद्योग और औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचों में निवेश करने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं थी। उन्होंने प्रस्ताव किया कि केंद्र सरकार को बिजली के उत्पादन, पारेषण (ट्रांसमिशन) और वितरण सहित बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग करना चाहिए। बड़े पूंजीपति उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जहां पूंजी की आवश्यकता कम है और अपेक्षित लाभ उच्च और त्वरित हैं।
1948 का विद्युत अधिनियम बॉम्बे योजना की सिफ़ारिशों पर आधारित था। हिन्दोस्तानी संघ के सभी राज्यों में राज्य विद्युत बोर्ड (एस.ई.बी.) का गठन किया गया था। उन्हें उस राज्य के हर में बिजली की आपूर्ति के लिए ज़िम्मेदार बनाया गया था।
इसके अतिरिक्त, 1948 के अधिनियम में निजी लाइसेंसधारियों को संबंधित राज्य सरकार/एस.ई.बी. द्वारा उन्हें नियुक्त किये गए क्षेत्रों में विद्युत वितरण और/अथवा उत्पादन करने की भी अनुमति दी गई थी। इसने यह सुनिश्चित किया कि टाटा समूह, जो मुंबई में बिजली का उत्पादन और वितरण कर रहा था और कोलकाता में बिजली वितरित करने वाला गोयंका समूह, दोनों ही राज्य क्षेत्र के तहत बिजली का उत्पादन और वितरण करने वाली सरकारी कंपनियों के साथ-साथ, अपना संचालन जारी रख सकते हैं और बड़े हो सकते हैं।
1956 के औद्योगिक नीति संकल्प (इंडस्ट्रियल पालिसी रेसोल्यूशन) ने दोहराया कि बिजली का उत्पादन, पारेषण और वितरण लगभग विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में होगा। केंद्र सरकार के स्वामित्व वाली कंपनियों – नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एन.टी.पी.सी.), नेशनल हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (एन.एच.पी.सी.), नेशनल पावर ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन (एन.पी.टी.सी.) और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन (पी.जी.सी.) द्वारा, उत्पादन संयंत्रों और पारेषण लाइनों की स्थापना में बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन का निवेश किया गया था। भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स (बी.एच.ई.एल.) की स्थापना बिजली उत्पादन उपकरणों के निर्माण के लिए की गई थी।
सरकारी कंपनियों पर निर्भरता की नीति तब तक जारी रही, जब तक हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों को इससे फ़ायदा था। 1980 के दशक में, पश्चिमी साम्राज्यवादी राज्यों ने विश्व बैंक और आई.एम.एफ. के ज़रिये, हिन्दोस्तान पर आयात शुल्क को कम करने और विदेशी पूंजी निवेश पर लगाए गए प्रतिबंधों को कम करने के लिए जबरदस्त दबाव डाला था। टाटा, बिरला और अन्य औद्योगिक घरानों ने विदेशी प्रतिस्पर्धा को सीमित करके अपने घरेलू साम्राज्यों का निर्माण किया था। अब उन्होंने उन प्रतिबंधों को हटाने की आवश्यकता को पहचान लिया है, ताकि वे भी वैश्विक स्तर पर दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों के साथ स्पर्धा कर सकें। लेकिन, वे हिन्दोस्तानी बाज़ार को बहुत तेज़ी से नहीं खोलना चाहते थे। उन्होंने अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे विदेशी वस्तुओं और विदेशी पूंजी के लिए खोलने की नीति अपनाई।
सोवियत संघ के विघटन के साथ-साथ, विश्व स्तर पर अचानक हुए कई प्रमुख परिवर्तनों के साथ 1990 के दशक की शुरुआत हुई। विश्व क्रांति की लहर ज्वार से भाटे में बदल गयी। हमारे देश में पूंजीवाद का विकास उस स्तर पर पहुंच गया था, जब हिन्दोस्तान के इजारेदार पूंजीवादी घरानों ने देश में विदेशी पूंजी निवेश को एक ऐसे कारक के रूप में देखना शुरू कर दिया था, जो उनके स्वयं के वैश्विक विस्तार को तेज़ कर सकता था। हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों के दृष्टिकोण में हुए इस परिवर्तन की वजह से, उन्होंने 1991 में उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के कार्यक्रम को खुले तौर पर अपनाया। उन्होंने समाजवादी नमूने के समाज के निर्माण के सभी ढोंग को छोड़ दिये। उन्होंने साम्राज्यवादी मंत्र को दोहराया कि हर किसी को बाज़ार में खुद की देखभाल करनी चाहिए और राज्य की ज़िम्मेदारी है केवल एक अनुकूल निवेश का वातावरण बनाना। जिसका अर्थ है कि किसी भी देश के पूंजीपतियों के लिए निवेश करने और अधिकतम मुनाफ़ा प्राप्त करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना।
अपने निजी साम्राज्यों के निर्माण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का उपयोग करने के बाद, इजारेदार पूंजीवादी घरानों ने फ़ैसला किया कि, अब समय आ गया है कि वे अपने निजी साम्राज्यों का विस्तार करने के लिए, सार्वजनिक संपत्ति को कौड़ियों के दाम पर हड़प लें। विदेशी प्रतिस्पर्धा को सीमित करके अपने औद्योगिक आधार का निर्माण करने के बाद, उन्होंने फ़ैसला किया कि अब उन प्रतिबंधों को हटाने का समय आ गया है, ताकि वे विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें।
संक्षेप में, आज़ादी के बाद हिन्दोस्तान में सरकारी नीतियों, क़ानूनों और नियमों की प्रेरक शक्ति हमेशा से सबसे अमीर इजारेदार पूंजीपतियों के निजी मुनाफ़ों को बढ़ाना रही है।
शुरुआती दशकों में, सरकारी कंपनियों को बनाने और विस्तारित करने की नीति ने औद्योगिकीकरण के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करने का काम किया, ताकि औद्योगिक घराने उपभोग की विनिर्मित वस्तुओं के लिए बाज़ार पर हावी हो सकें और अधिकतम मुनाफ़े प्राप्त कर सकें। वर्तमान अवधि में, निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के एजेंडे से इजारेदार पूंजीवादी मुनाफ़ों को अधिकतम करने की हवस को पूरा किया जा रहा है।
इजारेदार पूंजीपतियों ने अपने हित के अनुसार, 1948 में बिजली के उत्पादन से लेकर वितरण तक को राज्य की ज़िम्मेदारी में रखने की नीति लागू करवाई थी। 1991 के बाद से, फिर इजारेदार पूंजीपतियों के हित में ही, निजीकरण के कार्यक्रम को निर्धारित किया जा रहा है। जब इजारेदार पूंजीपति आवश्यक निवेश का खर्च नहीं उठा सकते थे तो वे चाहते थे कि सार्वजनिक धन का निवेश बिजली क्षेत्र में किया जाए। अब, जब उन्होंने दुनिया के सबसे अमीर लोगों में गिने जाने के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया है, तो वे चाहते हैं कि सरकारी कंपनियां उन्हें सौंप दी जाएं।
दूसरा लेख पढ़िए : बिजली-आपूर्ति का संकट और उसका असली कारण
चौथा लेख पढ़िए: बिजली के उत्पादन का निजीकरण – झूठे दावे और असली उद्देश्य