नाज़ी जर्मनी की पराजय की 77वीं वर्षगाँठ के अवसर पर :
दूसरे विश्व युद्ध से सबक

स्थायी शांति क़ायम करने के लिए साम्राज्यवादी जंग के स्रोत, साम्राज्यवादी व्यवस्था, को उखाड़ फेंकना होगा और उसकी जगह पर समाजवाद की स्थापना करनी होगी

77 वर्ष पहले, 9 मई, 1945 को नाज़ी जर्मनी ने जर्मनी की राजधानी, बर्लिन में सोवियत संघ की लाल सेना के प्रतिनिधियों के सामने, आत्म-समर्पण किया था। इसके साथ, यूरोप में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ। इससे पहले, 2 मई को जर्मनी के संसद (राइकस्टैग) पर लाल सेना के झंडे के फहराए जाने के साथ, नाज़ी फासीवाद से यूरोप और दुनिया की मुक्ति का संदेश पहुंचाया गया।

नाज़ी जर्मनी, फासीवादी इताली और सैन्यवादी जापान, इन तीनों ने मिलकर दुनिया के लोगों के ख़िलाफ़, मानव जाति के इतिहास का एक बहुत ही भयानक युद्ध आयोजित किया था। उन्होंने दुनिया को फिर से आपस में बांटकर अपने-अपने बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों का विस्तार करने के इरादे से ऐसा किया था। उन्होंने धर्म और नस्ल के आधार पर, पूरे-पूरे समुदायों के लोगों का जनसंहार किया और ऐसे-ऐसे अपराध किये जिनका वर्णन करना असंभव है।

यूरोप, एशिया और अफ्रीका के जिन देशों पर उन ताक़तों ने कब्ज़ा किया था, वहां के लोग कम्युनिस्टों की अगुवाई में, आज़ादी और मुक्ति के लिए ज़ोरदार संघर्ष में आगे आये। सोवियत संघ के लोगों ने उस महान संघर्ष में बेमिसाल कुर्बानियां कीं, जिसे सारी दुनिया की फासीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी ताक़तें सोवियत लोगों के महान देशभक्ति के युद्ध के रूप में हमेशा याद रखेंगी।

परन्तु 77 वर्ष पहले जर्मनी और उसके मित्रों की पराजय से फासीवाद और दुनिया के पुनः बंटवारे के लिए साम्राज्यवादी जंग ख़त्म नहीं हुए। दूसरे विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद, अमरीकी साम्राज्यवाद ने हिटलरवादी फासीवाद को अपना लिया। दूसरे विश्व युद्ध के अंत में अमरीका अन्य देशों की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली बन गया था। तब उसने सोवियत संघ तथा दूसरे समाजवादी देशों में समाजवाद को नष्ट करने, क्रांति और समाजवाद के लिए मज़दूर वर्ग और लोगों के संघर्षों को कुचलने और खुद को साम्राज्यवादी मोर्चे का प्रधान स्थापित करने के लिए अपने व्यापक संसाधनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिन बदनाम युद्ध अपराधियों ने मानव जाति के ख़िलाफ़ वहशी अपराध किये थे, उन्हें अमरीका में नागरिकता दी गयी, ताकि वे कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ अमरीकी साम्राज्यवाद के जंग में अहम भूमिका अदा कर सकें।

युद्ध के अंत के समय, अमरीका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर, यह स्पष्ट कर दिया कि युद्ध के बाद उसके क्या इरादे थे। वह सोवियत संघ और दुनिया के लोगों को एक धमकी थी कि अमरीका अपने रास्ते में रुकावट बनने वाली किसी भी ताक़त को ख़त्म करने से पीछे नहीं हटेगा। राष्ट्रों के आत्म-निर्धारण के अधिकार को पांव तले रौंदकर, अमरीका ने उनके अंदरूनी मामलों में बड़ी बेरहमी से हस्तक्षेप किया, उनमें फासीवादी हुकूमतों को खड़ा किया और उनकी मिलीभगत के साथ, कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों का जनसंहार किया। अमरीका ने यूनान, कोरिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, ईरान व अन्य देशों के लोगों के क्रान्तिकारी संघर्षों पर क्रूर हमला किया। अमरीका के अन्दर, उसने “लाल ख़तरे” को मिटाने के नाम पर, सभी लोकतांत्रिक और प्रगतिशील लोगों पर फासीवादी हमला शुरू किया।

आज से 31 वर्ष पहले, जब सोवियत संघ का विनाश हुआ था, तब से अमरीका की अगुवाई में दुनिया के साम्राज्यवादियों ने कम्युनिज़्म के लिए और पूंजीवाद व साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए लोगों की आकांक्षाओं पर पानी फेरने के इरादे से, एक अप्रत्याशित हमला छेड़ दिया। अमरीकी साम्राज्यवाद अपने हथियारों के विशाल भण्डार के सारे अस्त्रों का इस्तेमाल कर रहा है, ताकि मज़दूर वर्ग के संघर्षों को कुचल दिया जा सके और अमरीका की हुक्मशाही के तले एक ध्रुवीय दुनिया स्थापित की जा सके। इन हथियारों में शामिल हैं जैव हथियार, आतंकवाद, “लोकतंत्र की हिफ़ाज़त” और “आतंकवाद पर जंग” के नाम पर अलग-अलग देशों में शासन परिवर्तन, सैनिक ताक़त और अंतर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था में मुद्रा बतौर डॉलर की प्राथमिकता, आदि। इनका तथाकथित मक़सद यह बताया जाता है, कि अमरीका “नियमों पर आधारित व्यवस्था” स्थापित करना चाहता है।

अमरीकी साम्राज्यवादी लगातार नाटो को यूरोप में पूर्व की ओर विस्तृत करते जा रहे हैं। वे पूरे यूरोप को अपनी हुक्मशाही के तले लाने के क़दम उठा रहा रहे हैं और इस प्रकार से, रूस के अस्तित्व को ही धमकी दे रहे हैं। एशिया में, अमरीका एशिया-प्रशांत महासागर इलाके में समुद्री मार्गों पर अपना कब्ज़ा जमाने तथा चीन को घेरने के उद्देश्य से, एक सैनिक-रणनीतिक गठबंधन बना रहा है।

पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था अप्रत्याशित संकट में फंसी हुई है। अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके मित्र इस संकट से निकलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी क़ीमत दुनिया के मज़दूर वर्ग और लोगों को चुकानी पड़ रही है।

अमरीकी साम्राज्यवादी फासीवाद और साम्राज्यवाद के स्रोत के बारे में लोगों के दिमाग में ग़लत सोच फैलाने के लिए निरंतर झूठा प्रचार करते रहते हैं। वे समाजवाद के लिए मज़दूरों के संघर्षों को कुचलने के एक हथियार बतौर, फासीवाद को जन्म देने में अमरीका, ब्रिटेन और दूसरे साम्राज्यवादी देशों के बड़े-बड़े इजारेदार पूंजीवादी घरानों की निर्णायक भूमिका को छुपाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध को अंजाम देने में अमरीकी साम्राज्यवाद और उनके मित्र ज़िम्मेदार थे। आज सारी दुनिया पर अपना बोलबाला स्थापित करने के लिए, वे जिस रास्ते को अपना रहे हैं, उसकी वजह से दुनिया को एक नए विश्वयुद्ध में धकेले जाने का ख़तरा बढ़ रहा है।

अमरीकी साम्राज्यवाद की योजनाओं को नाक़ामयाब करने तथा मानव समाज को एक और साम्राज्यवादी विश्वयुद्ध से बचाने के लिए, यह अत्यावश्यक है कि लोग दूसरे विश्वयुद्ध से उचित सबक सीखें।

दूसरे विश्वयुद्ध को अंजाम देने में अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस की भूमिका

प्रथम विश्वयुद्ध (1914 से 1918) दो साम्राज्यवादी गिरोहों के बीच में, दुनिया को फिर से बांटने का जंग था। उसका एक बहुत ही अहम परिणाम यह था कि रूस के मज़दूर और किसान अपने सरमायदारों का तख्तापलट करने में क़ामयाब हुए थे, रूस को उस जंग से बाहर निकालने और साम्राज्यवादी व्यवस्था से अलग करने में क़ामयाब हुए थे।

साम्राज्यवादी ताक़तों को इस बात का बहुत डर था कि उनके अपने तथा अन्य देशों के मज़दूर रूस के मज़दूरों की मिसाल के अनुसार आगे बढ़ने लग जाएंगे। इसलिए अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों ने अपनी सेना को भेजकर रूस पर हमला कर दिया, ताकि मज़दूरों और किसानों की नई-नई स्थापित हकूमत को ख़त्म किया जा सके और पूंजीवादी व्यवस्था को पुनः स्थापित किया जा सके। परंतु सोवियत संघ के क्रांतिकारी मज़दूरों और किसानों ने साम्राज्यवादियों की इन कोशिशों को बड़े-बड़े निर्णायक तरीक़े से नाक़ामयाब कर दिया था।

साम्राज्यवादी ताक़तों ने अपने देशों में मज़दूरों को क्रांति के लिए उठ खड़े होने से रोकने तथा सोवियत संघ में समाजवाद को नष्ट करने के अपने इरादों को नहीं छोड़ा। जैसे-जैसे यूरोप और उत्तरी अमरीका के पूंजीवादी देश गहरे आर्थिक संकट और मंदी ने फंसते गए, वैसे-वैसे साम्राज्यवादी सरमायदारों ने अलग-अलग देशों में सोशल डेमोक्रेसी को हुकूमत के पसंदीदा तरीक़े के बतौर खड़ा करना शुरू किया। मज़दूरों में यह भ्रम फैलाया गया कि पूंजी और श्रम के बीच के अंतर्विरोध को शांतिपूर्ण तरीक़े से हल किया जा सकता है, कि राज्य वर्गों से ऊपर है और दोनों, श्रमजीवी वर्ग तथा सरमायदार की सेवा कर सकता है। यह दावा किया गया कि इसलिए श्रमजीवी वर्ग को अब क्रांति में आगे आने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस प्रकार के भ्रमों को फैलाने के साथ-साथ, पूंजीवादी लोकतंत्र को बहुत ही सुंदर सजाकर पेश किया जाने लगा और सोवियत संघ पर हमले किए जाने लगे।

जब सोशल डेमोक्रेसी से क्रांतिकारी मज़दूरों को काबू में नहीं रखा जा सका, तब साम्राज्यवादी सरमायदारों ने अलग-अलग देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूरों के आंदोलन को कुचलने के लिए खुलेआम फासीवाद का सहारा लिया। कम्युनिज़्म के ख़तरे से “पितृ भूमि की रक्षा” का नारा देकर साम्राज्यवादी सरमायदारों ने क्रांति के ख़तरे को टालने के लिए, मज़दूर वर्ग और लोगों तथा उनके अधिकारों पर वहशी हमले करना शुरू कर दिया।

अमरीकी साम्राज्यवाद ने नाज़ी जर्मनी के उभरने में मदद करने की बहुत अहम भूमिका निभाई थी। रोकफेलर, वारबर्ग, मोंतैग नार्मन, ओसबोर्न, मॉर्गन, हर्रिमान, डलास और दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों और बैंकरों ने जर्मनी को धन और हथियारों को बनाने की टेक्नोलॉजी प्रदान किए। आई.बी.एम. ने जन संहार करवाने के लिए नागरिकों का डाटाबेस तैयार करने में जर्मन सरकार के साथ नज़दीकी से काम किया। जनरल मोटर्स और फोर्ड ने जर्मनी द्वारा इस्तेमाल किए जाने के लिए टैंक और रक्षा-कवच वाली गाड़ियां बनाईं। स्टैंडर्ड आयल के सबसे बड़े स्टॉक धारक रोकफेलर और जर्मन कंपनी आईजी फार्बन थे, जिनकी नाज़ी हकूमत का समर्थन करने में अहम भूमिका थी। स्टैंडर्ड ऑयल ने जर्मनी को टेक्नोलॉजी दी ताकि वह अपने विमानों और टैंकों को कोयले के साथ चला सके। बड़े-बड़े अमरीकी बैंकों ने ब्रिटिश और फ्रेंच बैंकरों के साथ मिलकर स्विट्जरलैंड में सेंट्रल बैंक की स्थापना की थी ताकि नाज़ी जंग की मशीन को धन दिया जा सके। टाइम मैगजीन ने बार-बार बेनिटो मुसोलिनी की तस्वीर को अपने कवर पृष्ठ पर छापा और यह प्रचार किया कि अमरीका और यूरोप को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए फासीवाद ही सही रहता है।

1930 के दशक में दुनिया के बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों को फिर से बांटने के लिए एक नया साम्राज्यवादी जंग शुरू हो गया। जर्मनी, जापान और इटली अपने-अपने बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों का विस्तार करने की कोशिश कर रहे थे। पुरानी उपनिवेशवादी ताक़तें, ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ तथा जापान को चीन और सोवियत संघ के ख़िलाफ़ भड़काने की सोची-समझी नीति को अपनाया, ताकि वे सभी देश आपस में लड़-लड़ कर कमज़ोर हो जाएंगे। ब्रिटेन और फ्रांस की योजना थी कि वे उन देशों को कमज़ोर करके, उसके बाद जंग में प्रवेश करेंगे और विजेता बनकर निकलेंगे।

अमरीका की रणनीति थी इन सब गतिविधियों को देखते रहना और जब बाकी सभी ताक़तों ने आपस में लड़कर खुद को थका दिया हो, उस समय जंग में प्रवेश करना, ताकि अमरीका खुद निर्विवादित नेता के रूप में उभर कर आ सके।

अमरीकी सेनेटर हैरी ट्रूमैन ने अमरीका की इस चतुर रणनीति का वर्णन किया था। सोवियत संघ पर नाज़ी हमले के ठीक बाद ट्रूमैन ने कहा था (न्यूयॉर्क टाइम्स 24 जून, 1941) कि : “अगर हमें लगता है कि जर्मनी जंग को जीत रहा है तो हमें रूस की मदद करनी चाहिए और अगर लगता है कि रूस जीत रहा है तो हमें जर्मनी की मदद करनी चाहिए ताकि उस तरह वे आपस में जितने लोगों की हत्या कर सकते हैं करें।” यूरोप में दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने के दिनों में अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट के देहांत के बाद, अप्रैल 1945 में ट्रूमैन अमरीका का राष्ट्रपति बना था।

अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के इरादों को समझकर, सोवियत संघ ने जे.वी. स्टालिन के दूरदर्शी नेतृत्व में, खुद को हमले से बचाने की पूरी तैयारी कर ली। सोवियत संघ ने जर्मनी के साथ गैर-आक्रामकता संधि पर हस्ताक्षर करके, खुद के लिए आवश्यक समय हासिल किया। जर्मनी ने फ्रांस समेत, यूरोप के अधिकतम हिस्से पर हमला करके उस पर कब्ज़ा कर लिया। फिर जर्मनी ने ब्रिटेन पर बम बरसाना शुरू किया और उसके बाद, 1941 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अपनी विशाल सैनिक ताक़त को लागू कर दिया। जापान ने चीन पर हमला करने के बाद, दक्षिण पूर्वी एशिया में ब्रिटिश, फ्रेंच और दूसरे देशों के उपनिवेशों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया।

अमरीका ने जर्मनी और जापान केख़िलाफ़ युद्ध में दिसंबर 1941 में ही प्रवेश किया जब जापान ने प्रशांत महासागर में पर्ल हारबर नामक अमरीकी नौसैनिक अड्डे पर हमला किया।

अमरीका ने दूसरे विश्वयुद्ध को समाजवादी सोवियत संघ को नष्ट करने और युद्ध के बाद की अवधि में अपने साम्राज्यवादी हितों को बढ़ावा देने के नज़रिए से देखा था। नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ जंग में शामिल होने के बाद भी अमरीका ने जे.वी. स्टालिन और सोवियत संघ के उस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया था, कि नाज़ियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए पश्चिम यूरोप में एक दूसरा मोर्चा खोला जाए। अमरीका चाहता था कि जर्मनी अपनी पूरी सैनिक ताक़त को पूर्वी सीमा पर, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लामबंध करे, ताकि वे दोनों देश आपस में लड़कर कमजोर हो जाएं।

नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ जंग का पूरा बोझ सोवियत संघ को मजबूरन उठाना पड़ा। सोवियत संघ के 280 लाख लोगों ने उस जंग में अपनी जान की कुर्बानी दी थी। नाज़ी जर्मनी के 73 प्रतिशत सैनिक और 75 प्रतिशत हथियार सोवियत संघ व जर्मनी के बीच के युद्ध में नष्ट हुए थे। सोवियत संघ की लाल सेना ने न सिर्फ सोवियत संघ के कब्ज़ा किये हुए इलाकों को मुक्त कराया बल्कि उसने जर्मनी के अंदर तक प्रस्थान किया और रास्ते में सभी कब्ज़ा किये हुए देशों को भी मुक्त कराया।

जब यह स्पष्ट हो गया कि लाल सेना खुद, अकेले ही, पूरे यूरोप को नाज़ी फासीवाद के कब्ज़े से मुक्त करा देगी, तब बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने 1944 में, यूरोप में नाज़ियों के ख़िलाफ़ एक दूसरा मोर्चा खोला। अमरीका की रणनीति थी कि जर्मनी और यूरोप के अन्य देशों के लोगों को अमरीका के कब्ज़े में लाया जाए, ताकि वे साम्राज्यवादी व्यवस्था से अलग न हो सकें।

इस उद्देश्य के साथ बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवाद ने मार्च 1945 में, जब सोवियत संघ की लाल सेना जर्मनी की सरहदों के पास पहुंच रही थी तब, नाज़ी जर्मनी के साथ अलग से गुप्त समझौते किए। उन समझौतों की शर्तों के अनुसार, जर्मनी को लाल सेना के ख़िलाफ़ लड़ने पर अपनी पूरी सेना को केंद्रित करना था, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी यूरोप से बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवादियों की सेनाओं को बेरोक आगे बढ़ने की पूरी इज़ाज़त दी जानी थी। इस तरह अमरीकी साम्राज्यवादी यूरोप के ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर अपने सैनिक नियंत्रण को स्थापित करना चाहते थे।

दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ और दुनिया के लोगों की जीत होने की वजह से, यूरोप और एशिया के बहुत से देशों में फासीवादी गुलामी और साम्राज्यवादी व्यवस्था से मुक्ति का रास्ता खुल गया। सारी दुनिया में क्रांतिकारी और मुक्ति संघर्षों की उभरती लहर तेज़ी से फैलने लगी। ब्रिटेन और फ्रांस जैसी पुरानी उपनिवेशवादी ताक़तें बहुत कमज़ोर हो गईं और एशिया तथा अफ्रीका में उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष तेज़ी से आगे बढ़ने लगे। उपनिवेशवादी व्यवस्था का अंत होने जा रहा था। समाजवादी सोवियत संघ की अगुवाई में एक साम्राज्यवाद-विरोधी, फासीवाद-विरोधी, समाजवादी मोर्चा पैदा हुआ।

बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवाद की प्रचार मशीनरी ने दूसरे विश्वयुद्ध के बारे में झूठी धारणा फैलाई है। इस झूठी धारणा के अनुसार यह कहा जाता है कि अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने फासीवाद को हराने तथा शांति, लोकतंत्र और राष्ट्रों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए उस जंग में हिस्सा लिया था। परंतु सच तो यह है कि उन्होंने अपने बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों का विस्तार करने तथा समाजवाद को नष्ट करने के खुदगर्ज़ इरादों के साथ ही जंग में हिस्सा लिया था।

निष्कर्ष

विनाशकारी जंग का स्रोत साम्राज्यवादी व्यवस्था है। साम्राज्यवाद के चलते, पूंजीवादी देशों में असमान विकास होता है। इसकी वजह से, बाज़ारों, कच्चे माल के स्रोतों तथा प्रभाव क्षेत्र को फिर से आपस में बांटने के लिए प्रतिस्पर्धी साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच आपसी टकराव अनिवार्य हैं।

31 वर्ष पहले जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, उसके बाद शांति की अवधि नहीं स्थापित हुई, जैसा कि साम्राज्यवादियों ने वादा किया था। अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी हुक्मशाही के तहत एक ध्रुवीय दुनिया स्थापित करने के अपने लक्ष्य को बड़े हमलावर तरीक़े से हासिल करने के क़दम उठा रहा है। ऐसा करते हुए, अमरीकी साम्राज्यवाद दुनिया को एक के बाद दूसरे जंग में धकेल रहा है और यह सब “दुष्ट राज्यों” तथा “आतंकवाद” के ख़िलाफ़ लड़ने के नाम पर किया जा रहा है।

अमरीकी साम्राज्यवाद यह दावा करता है कि वह “नियमों पर आधारित व्यवस्था” की हिमायत करता है। अमरीकी साम्राज्यवाद दूसरे देशों को नियमों का उल्लंघन करने के लिए दोषी बताता है, जबकि वास्तव में अमरीकी साम्राज्यवाद खुद ही सहमति से स्थापित किए गए अंतरराष्ट्रीय नियमों का सबसे ज्यादा उल्लंघन करता है। अमरीकी साम्राज्यवाद विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।

दुनिया में आज जो संघर्ष चल रहा है, यह दो व्यवस्थाओं के बीच में संघर्ष है। एक व्यवस्था है पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था जो मानव समाज को नष्ट करने की धमकी दे रही हैं, और दूसरी व्यवस्था है समाजवादी व्यवस्था जो कि मानव समाज का भविष्य है।

जब तक साम्राज्यवाद मौजूद रहेगा तब तक युद्ध का ख़तरा जारी रहेगा। स्थाई शांति को सुनिश्चित करने का एकमात्र रास्ता है फिर से श्रमजीवी क्रांति की दूसरी लहर को खड़ा करना। साम्राज्यवादी व्यवस्था का तख्तापलट करना होगा और उसकी जगह पर समाजवाद की स्थापना करनी होगी।

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