हिन्दोस्तान की आज़ादी का महान युद्ध – 1857 के ग़दर की 165वीं सालगिरह के अवसर पर

हमें बांटने वालों और हमारी ज़मीन व श्रम का शोषण और लूट करने वालों के खि़लाफ़ संघर्ष आज भी जारी है

आज से 165 वर्ष पहले, 10 मई को मेरठ में तैनात किये गये ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए कूच किया था। वह महान ग़दर की शुरुआत थी। वह हिन्दोस्तान की आज़ादी का जंग था, हिन्दोस्तानी उपमहाद्वीप के व्यापक क्षेत्र पर कब्ज़ा किये हुए, उस अंग्रेज़ व्यापारी कंपनी के अन्यायपूर्ण, दमनकारी और खुदगर्ज़ शासन से आज़ादी के लिए जंग था।

समाज के हर तबके के लोग दमनकारी कंपनी राज का तख़्तापलट करने के लिए एकजुट हो गए थे। लोग धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति के भेदभाव को भुलाकर एकजुट होकर, संघर्ष में आगे आए थे। इस उपमहाद्वीप के अलग-अलग इलाकों में मेहनतकश किसान और कारीगर, आदिवासी, व्यापारी, बुद्धिजीवी, अलग-अलग धर्मों के प्रधान, देशभक्त राजा और रानी, सब उस हथियारबंद बग़ावत में आगे आए थे। वे सब एक ऐसे नए राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य के साथ एकजुट हुए थे, जिसमें इस उपमहाद्वीप के लोग खुद अपने भविष्य को निर्धारित करेंगे। हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!”, इस नारे को बुलंद करते हुए, उन्होंने असीम हिम्मत के साथ जंग के मैदान में प्रवेश किया था।

1857 के ग़दर का ऐतिहासिक महत्व यह है कि उस ग़दर से यह मिथक चकनाचूर हुआ, कि इस उपमहाद्वीप के लोग अलग-अलग धर्मों, जातियों और समुदायों में बंटे हुए हैं और अपने अत्याचारियों के खि़लाफ़ एकजुट होने के क़ाबिल नहीं हैं।

1857 का अनुभव आज इसलिए महत्व रखता है क्योंकि, लगभग 75 वर्ष पहले उपनिवेशवादी शासन तो ख़त्म हो गया था, परंतु हमारी भूमि तथा श्रम का शोषण और लूट आज भी जारी है। 1857 के अनुभव का महत्व आज इसलिए भी है क्योंकि हिन्दोस्तान के लोग आज भी उसी ‘बांटो और राज करो’ के असूल के शिकार बने हुए हैं, जिसे अंग्रेज़ी राज ने स्थापित और मजबूत किया था।

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17वीं सदी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस उपमहाद्वीप में व्यापार शुरू किया था। 18वीं सदी के पहले 50 सालों के अंदर उसने इस उपमहाद्वीप के अलग-अलग प्रतिस्पर्धी राजाओं के आपसी अंतर्विरोधों का बड़ी चतुराई से फ़ायदा उठाकर, कुछ गद्दारों को रिश्वत देकर और अलग-अलग राजाओं और राजकुमारों को अपना मित्र बनाकर, आपस में भड़का कर और उनके साथ विश्वासघात करके, यहां खूब-सारे इलाकों पर अपना कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। 1850 के दशक तक, ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल, मुंबई और मद्रास सेनाओं में लगभग दो लाख हिन्दोस्तानी सिपाही और 38,000 अंग्रेज सिपाही थे।

इंग्लैंड के पूंजीपतियों के हित के लिए इस उपमहाद्वीप की भूमि और हमारे लोगों के श्रम का शोषण और लूट किया जा रहा था। इसकी वजह से यहां बड़े पैमाने पर भुखमरी और ग़रीबी फैल गई थी। इस उपमहाद्वीप के कोने-कोने से लोग, इस भयानक हालत को ख़त्म करने की तमन्ना के साथ आगे आकर, एकजुट हुए थे।

क्रान्तिकारी ताक़तों ने बहादुर शाह ज़फर को अपना प्रधान प्रतिनिधि घोषित किया था। 12 मई को बहादुर शाह ज़फर ने यह शाही फरमान जारी किया था कि:

“हिन्दोस्तान के सभी हिन्दुओं और मुसलमानों को मैं यह कहना चाहता हूं कि इस समय, जनता के प्रति मेरे फ़र्ज़ को ध्यान में रखते हुए, मैंने यह फ़ैसला किया है कि मैं अपने लोगों के साथ खड़ा रहूंगा। इस समय सभी हिन्दुओं और मुसलमानों का अनिवार्य कर्तव्य है कि वे अंग्रेजों के खि़लाफ़ बग़ावत में जुड़ जाएं। सभी को शहरों में अपने नेताओं के मार्गदर्शन के तले काम करना चाहिए और देश में व्यवस्था पुनः स्थापित करने के लिए क़दम लेना चाहिए। यह सभी लोगों का अनिवार्य कर्तव्य है कि वे यथासंभव, इस फरमान की कॉपियां बनाकर इसे सभी शहरों में अहम स्थानों पर लगा दें। लेकिन ऐसा करने से पहले लोगों को हथियार उठा लेना पड़ेगा और अंग्रेजों पर जंग का ऐलान कर देना पड़ेगा।”

बहादुर शाह ने एक और फरमान जारी किया था, जिसमें उन्होंने लोगों को यह चेतावनी दी थी कि:

“अंग्रेज हिंदुओं को मुसलमानों के खि़लाफ़ और मुसलमानों को हिंदुओं के खि़लाफ़ भड़काने की कोशिश करेंगे। उनकी बातों पर ध्यान न देना। बल्कि, उन्हें देश से बाहर भगा देना।”

20 से ज्यादा शहरों में लोग हथियार उठाकर आगे आए। ये शहर अंग्रेज़ी हिन्दोस्तान के प्रमुख उत्पादन केंद्र थे। लोगों ने अवध समेत, पूर्वी हिन्दोस्तान में बहुत सारे इलाकों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना के अधिकतम सैनिकों ने अपने अफ़सरों के खि़लाफ़ विद्रोह किया और क्रांतिकारी ताक़तों से जुड़ गए।

1857 के ग़दर ने हिन्दोस्तान पर अंग्रेज़ हुकूमत की नींव को झकझोर दिया और वह लंदन तथा पूरी दुनिया में राजनीतिक चर्चा का मुख्य विषय बन गया।

इस उपमहाद्वीप के लोगों के इस प्रकार एकजुट होकर विद्रोह करने से अंग्रेज़ हकूमत बुरी तरह हिल गई। उस समय तक अंग्रेज़ हुक्मरान यह मानते थे कि क्योंकि हिन्दोस्तान में अलग-अलग भाषाओं, धर्मों और जातियों के लोग बसे हुए हैं, इसलिए इन भेदभावों की वजह से लोग उपनिवेशवादी हुकूमत को ख़त्म करने के लिए एकजुट संघर्ष नहीं कर पाएंगे।

लोगों पर कब्ज़ा करने के लिए उन्हें बांटना और फिर लोगों पर राज करने के लिए उन्हें बांटना – इन असूलों से मार्गदर्शित होकर हुक्मरानों ने हिन्दोस्तान पर अपना साम्राज्य स्थापित किया था। 1822 में लेफ्टिनेंट कर्नल कोक, जो कंपनी राज के तहत मुरादाबाद के तत्कालीन कमांडेंट थे, उसने लिखा था कि हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि अलग-अलग धर्मों और जातियों के बीच में जो मतभेद मौजूद हैं, उन्हें पूरी ताक़त के साथ बरकरार रखा जाये और उनके आपस में सामंजस्य बनाने की बिल्कुल कोशिश न की जाये। बांटो और राज करो’, यही हिन्दोस्तान की सरकार का असूल होना चाहिए।”

हुक्मरानों ने हिन्दोस्तान की आज़ादी के योद्धाओं के खि़लाफ़ अप्रत्याशित क्रूरता का इस्तेमाल किया, ग़दर के दौरान और उसे दबाने के बाद के वर्षों में भी। हुक्मरानों ने दसों-हजारों देशभक्तों को फांसी पर चढ़ा दिया। पेशावर से कोलकाता तक, ग्रैंड ट्रंक रोड के हर पेड़ पर एक लाश लटकाई गई थी। पूरे-पूरे शहरों को लूटा गया, निहत्थे लोगों का क़त्लेआम किया गया और पूरे-पूरे गांव जलाकर राख कर दिए गए। अवध इलाके से दसों-लाखों लोगों को इस आतंक की मुहिम से बचने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों को भागना पड़ा था। कुछ इतिहासकारों ने अनुमान लगाया है कि लगभग एक करोड़ लोगों को, जो कि उस समय के अंग्रेज़ हिन्दोस्तान की आबादी का 5 प्रतिशत से ज्यादा थे, 1857-58 के दौरान उपनिवेशवादी शासकों द्वारा मौत के घाट उतारा गया था। अंग्रेज सिपाहियों को उस बग़ावत को कुचलने और पूरे हिन्दोस्तानी उपमहाद्वीप पर अपना नियंत्रण फिर से जमाने के लिए एक साल से ज्यादा समय लगा था।

हुक्मरानों ने हिन्दोस्तानी संस्कृति का भी जनसंहार किया था। हजारों-हजारों सालों में हिन्दोस्तानी लोगों ने जो सोच-विचार की सामग्री पैदा की थी, उसे ख़त्म करने के लिए हुक्मरानों ने हमारे लोगों के पूरे-पूरे पुस्तकालय नष्ट कर दिए। हुक्मरानों ने किसी भी हिन्दोस्तानी लेखक द्वारा ग़दर पर लिखी गई किसी भी पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी और इसके बजाय, उन्होंने अंग्रेज़ लेखकों द्वारा ग़दर के तोड़े-मरोड़े विवरण को प्रकाशित किया।

1857 के ग़दर को कुचलने के बाद महारानी विक्टोरिया ने 1858 में एक ऐलाननामा जारी किया, जिसके अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की जगह पर अंग्रेज़ राज्य का सीधा शासन लागू किया गया। अंग्रेज़ सरमायदारों ने ऐसे राजनीतिक संस्थानों और शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना शुरू किया, जिनके ज़रिए लोगों के बीच में बंटवारे को और ज़ोरदार तरीके़ से बरकरार रखा गया और जिनका मक़सद था लोगों को एकजुट होकर फिर से बग़ावत करने से रोकना। अंग्रेज़ सरमायदारों ने अपने द्वारा की जा रही हिन्दोस्तान की लूट को जायज़ ठहराने के लिए और राष्ट्रीय आज़ादी की हिन्दोस्तानी लोगों की तमन्ना को अपराध करार देने के लिए, कई क़ानून लागू किए।

अंग्रेज़ सरमायदारों ने इस बात को छुपाया की 1857 के ग़दर में लोगों ने अपने धार्मिक भेदभाव को दरकिनार करते हुए, अपनी एकता बनाई थी। अंग्रेज़ सरमायदारों ने यह झूठा प्रचार फैलाया था कि 1857 का ग़दर मुसलमानों की बग़ावत थी”। उन्होंने कई गद्दार महाराजाओं की सांठगांठ में, देशभक्तों का क़त्लेआम आयोजित किया। राज्य ने लोगों का सांप्रदायिक आधार पर क़त्लेआम करवाया और फिर दूसरे धर्म के लोगों पर इसका झूठा इल्जाम लगा दिया।

हिन्दोस्तानी लोगों को हिंदू बहुसंख्यक, मुसलमान अल्पसंख्यक और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के बीच में बांटने के सांप्रदायिक नज़रिए को, बहुत ही सोचे-समझे तरीक़े से, देश के क़ानूनों को आधार बनाया गया। लॉर्ड कर्जन (जो 1895- 99 के बीच में हिन्दोस्तान के गवर्नर जनरल और 1899-1904 तक वायसरॉय थे) को अंग्रेज़ सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया ने बताया कि उन्हें पाठ्य पुस्तकों को इस प्रकार से व्यवस्थित करना चाहिए ताकि अलग-अलग समुदायों के बीच में अंतरों को और मजबूत किया जा सके।”

जिन संपत्तिवान और ऊंची-ऊंची पदवियों से नवाज़े गए हिन्दोस्तानियों ने अंग्रेज हुक्मरानों का सहयोग किया था, उन्हें ज़मीन और औद्योगिक लाइसेंसों से पुरस्कृत किया गया। अंग्रेज सरमायदारों ने इसे अपने लिए हितकारी समझा कि हिन्दोस्तानियों के बीच में से पूंजीपतियों और ज़मींदारों को विकसित किया जाए, जिनके हित में उपनिवेशवादी व्यवस्था को बरकरार रखना होगा। अंग्रेज हुक्मरानों ने उन संपत्तिवान वर्गों की राजनीतिक पार्टियों की स्थापना में सहायता की, जैसे कि इंडियन नेशनल कांग्रेस और इंडियन मुस्लिम लीग। 20वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने प्रादेशिक वैधानिक निकायों में सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया शुरू की, जिसमें कांग्रेस पार्टी, मुस्लिम लीग और इस प्रकार की अन्य पार्टियां अपने उम्मीदवारों को खड़ा कर सकती थीं। निर्वाचन क्षेत्रों को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जाता था ताकि शिक्षित और संपत्तिवान हिन्दू और मुसलमान, अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अपने-अपने उमीदवारों के लिए मतदान कर सकें।

सांप्रदायिक बंटवारे को और गहरा करने के लिए अंग्रेज़ हुक्मरानों ने किसी समय हिन्दुओं का पक्ष लेने और किसी दूसरे समय पर मुसलमानों का पक्ष लेने का दिखावा किया। सच तो यह था कि उन्होंने सभी हिन्दोस्तानी लोगों की भूमि और श्रम का शोषण किया और लूटा, चाहे किसी का कोई भी धर्म हो। सिर्फ कुछ मुट्ठीभर खुदगर्ज गद्दार लोगों को ही अंग्रेज़ राज के तहत विशेष अधिकार और लाभ दिए गए।

अगस्त 1947 में जब धार्मिक पहचान के आधार पर हिन्दोस्तान का बंटवारा किया गया और पंजाब और बंगाल के राज्यों को बांट दिया गया, तो वह उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्ति के लिए हिन्दोस्तानी लोगों के एकजुट संघर्ष के खि़लाफ़ अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों द्वारा किया गया सबसे बड़ा अपराध था। अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित सांप्रदायिक बुनियादों के ऊपर, दो देश – हिन्दोस्तान और पाकिस्तान – बनाए गए, ताकि देशी और विदेशी पूंजीपतियों द्वारा हमारी भूमि और श्रम के शोषण और लूट-खसोट को निरंतर बरकरार रखा जा सके।

हिन्दोस्तान के हुक्मरान वर्ग ने बहुत ही सुनियोजित और सोचे-समझे तरीक़े से यह झूठा प्रचार फैलाया है कि एक ख़ास धार्मिक समुदाय के लोग हिन्दोस्तान के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं। सच तो यह है कि अंग्रेज़ साम्राज्यवादी ही हिन्दोस्तान के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार थे।

आज भी “बांटो और राज करो” सरकार का असूल है। आज भी राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा राज्य के शासन का पसंदीदा तरीक़ा है। इसकी वजह यह है कि 1947 में राज्य का चरित्र नहीं बदला। हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों ने बड़े जमींदारों और गद्दार शाही परिवारों के साथ समझौता करके, अंग्रेज़ सरमायदारों की जगह ले ली। आर्थिक व्यवस्था, राज्य का ढांचा, क़ानून, दमन के अस्त्र, प्रशासन की मशीनरी और शासन के तौर-तरीक़े –  उन सबको हिन्दोस्तानी सरमायदारों के हितों की सेवा के लिए, ठीक वैसे का वैसा ही रखा गया है।

संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया के ज़रिए सरमायदारों की हुकूमत को बरकरार रखा जाता है। क़ानून और नीतियां बनाने में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती। कुछ मुट्ठीभर, डेढ़ सौ इजारेदार पूंजीवादी घराने 140 करोड़ हिन्दोस्तानी लोगों पर अपनी मनमर्जी को थोपते जा रहे हैं। हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपतियों द्वारा देश की भूमि और श्रम का अतिशोषण और लूट आज तक जारी है।

1857 के ग़दर ने एक ऐसे आज़ाद हिन्दोस्तान के नज़रिए को जन्म दिया था, जिसमें हिन्दोस्तान के लोग खुद अपने मालिक होंगे। 1947 में उस नज़रिए और उस तमन्ना के साथ विश्वासघात किया गया था। आज 165 वर्ष बाद, उसे हक़ीक़त में बदलने के लिए संघर्ष अभी भी जारी है।

ग़दर ने अलग-अलग धर्मों के लोगों को आपस में लड़ाने के अंग्रेज हुक्मरानों के प्रयासों को नाक़ामयाब कर दिया था। आज भी हमारे सामने इसी प्रकार की चुनौती है। हमें हुक्मरान सरमायदार वर्ग की लोगों की एकता को तोड़ने की साज़िशों को नाक़ामयाब करना होगा।  हमें इस बात से प्रोत्साहन लेना होगा कि 1857 में करोड़ों-करोड़ों मेहनतकश और चिंतनशील लोगों ने अपने सांझे दुश्मन के खि़लाफ़ एकता बनाई थी। इससे यह ज़ाहिर होता है कि हम फिर से ऐसा कर सकते हैं।

हम हिन्दोस्तान के लोग, जो सांप्रदायिक हिंसा की महामारी को ख़त्म करना चाहते हैं और सबके लिए सुख-सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते हैं, हमें 1857 के शहीदों द्वारा शुरू किए गए कार्यक्रम को और आगे ले जाना होगा। यह एक ऐसे हिन्दोस्तान का निर्माण करने का कार्यक्रम है, जिसमें लोगों के हाथ में सत्ता होगी, जहां हर इंसान को एक बराबर का नागरिक और बराबर का मानव माना जाएगा, जहां श्रम करने वालों को अपने सामूहिक श्रम का फल मिलेगा, जहां अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर होगी और अर्थव्यवस्था की दिशा होगी पूंजीपतियों की लालच नहीं बल्कि लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना ।

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