बिजली क्षेत्र के मज़दूरों का संघर्ष बिल्कुल जायज़ है! बिजली का निजीकरण जन-विरोधी है!

बिजली मानव जीवन की मूलभूत ज़रूरतों में से एक है। इसलिए इस मूलभूत आवश्यकता के उत्पादन और वितरण का उद्देश्य निजी मुनाफ़ा कमाना नहीं हो सकता

हिन्दोस्तान में बिजली को लेकर वर्ग संघर्ष पर लेखों की श्रृंखला में यह पहला लेख है

बिजली उत्पादन और वितरण का पूरी तरह से निजीकरण करने के लिए, क़ानून लागू करने के लिये बारबार किये जा रहे प्रयासों के खि़लाफ़, बिजली क्षेत्र के लाखों मज़दूर लगातार जुझारू संघर्ष कर रहे हैं।

बिजली संशोधन विधेयक 2021, सरकार का चौथा ऐसा प्रयास है। इस विधेयक को 2014, 2018 और 2020 में भी अलगअलग रूपों में प्रस्तुत किया गया था, लेकिन अभी भी इसे संसद में पेश किया जाना बाकी है।

अगस्त 2021 में पूरे देश के बिजली मज़दूरों ने बिजली संशोधन विधेयक के खि़लाफ़ और बिजली की आपूर्ति के निजीकरण के कार्यक्रम के खि़लाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित किये।

निजीकरण के ख़िलाफ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के कई हिस्सों में राज्य स्तर पर विरोध प्रदर्शन किये गए हैं और वे अभी भी जारी हैं।

पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ में, बिजली वितरण के निजीकरण के ख़िलाफ़ फरवरी 2022 में बिजली क्षेत्र से जुड़े सभी मज़दूरों ने हड़ताल की, जिसका बहुत ज्यादा असर उस शहर की बिजली आपूर्ति पर हुआ।

जम्मू और कश्मीर में बिजली बोर्ड के मज़दूरों ने दिसंबर 2021 में ख़राबी को ठीक करने के काम का बड़े पैमाने पर बहिष्कार किया। जिसकी वजह से उनसे तुरंत बातचीत करने के लिये केंद्र सरकार को मजबूर होना पड़ा और उस केंद्रशासित प्रदेश में बिजली की आपूर्ति के निजीकरण की योजना को स्थगित करने के लिए सरकार सहमत हुई।

पूरे देश में बिजली कर्मचारियों के व्यापक विरोध और हड़तालों के चलते, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बिजली संशोधन विधेयक को संसद में पेश करने के अपने इरादे को टाल दिया है।

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस 21वीं सदी में बिजली मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। बिजली के बिना बुनियादी शिक्षा प्राप्त करना भी असंभव है। मज़दूर यूनियनों ने इस बात को बारबार दोहराया है।

आज के युग में बिजली सभी मनुष्यों की एक अनिवार्य ज़रूरत है। यह एक सर्वव्यापक अधिकार है। इसलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सभी को उचित दरों पर बिजली की पर्याप्त और विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करे। बिजली की आपूर्ति का निजीकरण, राज्य द्वारा अपने इस कर्तव्य की अवहेलना करने के बराबर है। सस्ती दरों पर विश्वसनीय बिजली की आपूर्ति का न होना लोगों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

सरकार इस मुद्दे पर मज़दूरों के प्रतिनिधियों से चर्चा करने से इंकार कर रही है। यह दिखाता है कि बिजली आपूर्ति के निजीकरण के ख़िलाफ़ मज़दूरों के अकाट्य तर्कों का पूंजीपति वर्ग के पास कोई मुमकिन जवाब नहीं है।

बिजली के उत्पादन के क्षेत्र में निजीकरण का कार्यक्रम 1990 के दशक में शुरू हुआ था। विभिन्न देशीविदेशी निजी कंपनियों के साथ बिजली की ख़रीद के दीर्घकालिक समझौतों पर अधिकारियों ने हस्ताक्षर किए। इसके ज़रिये बिजली के उत्पादन में निवेश करने वाले इजारेदार पूंजीपतियों को भारी निजी मुनाफ़ा प्राप्त हुआ। इन समझौतों का नतीजा था कि राज्य बिजली बोर्डों को बिजली ख़रीदने के लिए, निजी कंपनियों को अत्याधिक क़ीमतें देनी पड़ीं। इसके फलस्वरूप, उन दरों में भी भारी वृद्धि हुई, जिसका भुगतान किसानों और शहरी मज़दूरों को बिजली के लिए करना पड़ता था।

केंद्र सरकार के प्रवक्ताओं और विभिन्न पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का दावा है कि बिजली के वितरण का निजीकरण करने से ग्राहकों को विभिन्न कंपनियों के बीच में से चयन करने की आज़ादी मिलेगी। उनका दावा है कि यह क़दम एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा लाएगा, जिससे बिजली की आपूर्ति अधिक कुशल और विश्वसनीय तथा सस्ती दरों पर होगी।

वितरण के निजीकरण का अब तक का अनुभव इन समर्थकों के दावों की पुष्टि नहीं करता। उदाहरण के लिए, मुंबई शहर में बिजली की आपूर्ति करने वाली दो निजी कंपनियां और एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, परन्तु उस शहर में बिजली की दरें देश में सबसे महंगी हैं। दिल्ली के अलगअलग इलाकों में बिजली पर इजारेदार पूंजीवादी घरानों, टाटा और रिलायंस की मालिकी वाली दो अलगअलग कंपनियों का नियंत्रण है। दिल्ली में कोई भी परिवार अपनी पसंद की बिजली वितरण कंपनी का चयन नहीं कर सकता। वे इस या उस निजी इजारेदार कंपनी की दया पर ही निर्भर हैं।

बिजली संशोधन विधेयक का उद्देश्य है निजी कंपनियों के लिए कम जोखिम के साथ, उच्चतम मुनाफ़े कमाने के अवसर पैदा करना। यानी कि बुनियादी ढांचे में पूंजी का निवेश किये बिना ही, सिर्फ मुनाफ़े कमाने के मौके प्रदान करना। विधेयक की एक धारा में कहा गया है कि:

आपूर्ति के किसी भी इलाके में, एक वितरण कंपनी को अपनी वितरणप्रणाली के ज़रिये, सभी पंजीकृत वितरण कंपनियों को बिजली की पहुंच बिना भेदभाव के देनी होगी …”

इसका मतलब यह हुआ कि जनता के पैसे से बनाया गया विशाल नेटवर्क, जो इस समय राज्य बिजली बोर्डों के नियंत्रण में है, उसे बड़े पूंजीपतियों को लगभग मुफ्त में उपलब्ध कराया जाएगा।

मज़दूरों की यूनियनों ने बारबार इस बात पर ज़ोर दिया है कि यह विधेयक मज़दूरों, किसानों और कम आय वाले अन्य उपभोक्ताओं की ज़रूरतों की आपूर्ति करने की बजाय, निजी कंपनियों के हितों की सेवा करने के लिए बनाया गया है। बिजली वितरण को लाइसेंस मुक्त करने का मतलब है पूंजीवादी कंपनियों को अपने ग्राहकों को चुनने की आज़ादी देना और ग्राहकों से महंगी दरें वसूलने की आज़ादी देना।

बिजली संशोधन विधेयक के विरोध में, किसानों की यूनियनों ने मज़दूरों की यूनियनों से हाथ मिला लिया है। किसानों को इसका एहसास है कि उनके पानी के पंप को चलाने के लिए बिजली बहुत महंगी हो जाएगी।

राज्य बिजली बोर्डों के मज़दूरों ने शहरी परिवारों को बिजली उत्पादन और वितरण दोनों के निजीकरण से होने वाले हानिकारक नतीजों के बारे में जागरुक करना शुरू कर दिया है।

बिजली मज़दूरों के संघर्ष को अर्थव्यवस्था के सभी भागों के मज़दूरों का पूरापूरा समर्थन मिलना चाहिए। इस संघर्ष को उन सभी का समर्थन मिलना चाहिए जो अपने समाज के भविष्य के बारे में चिंतित हैं। वर्तमान में हमारे समाज को इजारेदार पूंजीपतियों और उनकी खुदगर्ज पार्टियों द्वारा एक ख़तरनाक रास्ते पर ले जाया जा रहा है।

निजीकरण के ख़िलाफ़ किया जा रहा संघर्ष, इजारेदार घरानों के नेतृत्व में पूंजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ मज़दूरों, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों का संघर्ष है। अधिकतम मुनाफ़े के भूखे, इजारेदार पूंजीपतियों की लालच से समाज को मुक्त कराने के नज़रिये के साथ इस संघर्ष को मजबूत बनाना होगा। इसके लिए मज़दूर वर्ग को राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में लेने और बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधनों की मालिकी का सामाजीकरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही, अर्थव्यवस्था को नयी दिशा दिलाई जा सकेगी। इस दिशा का उद्देश्य होगा समाज के सभी सदस्यों के सम्मानजनक मानव जीवन के लिए सभी आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करना।

भाग 2 : बिजली-आपूर्ति का संकट और उसका असली कारण

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