पिछले एक साल के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 6 खाद्य तेलों की क़ीमतें जिसमें – मूंगफली का तेल, सरसों का तेल, वनस्पति और सोयबीन का तेल, सूरजमुखी का तेल और पामोलीन का तेल की क़ीमतें 20 प्रतिषत से 60 प्रतिशत तक बढ़ी हैं। इन दस सालों के दौरान खाद्य तेलों की क़ीमतें सबसे ज्यादा बढ़ी हुई, मई 2021 में देखी गईं। इन बढ़ती क़ीमतों ने उन कामकाजी लोगों पर और अधिक बोझ डाला है जो कुछ महीनों से पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों से पहले ही जूझ रहे हैं।
हिन्दोस्तान प्रतिवर्ष 150 लाख टन खाद्य तेलों का आयात करता है और उत्पादन केवल 75-85 लाख टन है। हिन्दोस्तान विश्व में खाद्य तेलों का प्रमुख आयातक है। घरेलू तेल की क़ीमतें अंतर्राष्ट्रीय कीमतों पर निर्भर होती हैं। हाल के महीनों में खाद्य तेलों की क़ीमतों में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बहुत ही तेज़ी से उछाल आया है।
भोजन पकाने वाले तेल की क़ीमतों की तरह ही दालों की क़ीमतें भी पिछले साल से 4 से 15 प्रतिषत तक बढ़ी हैं।
दालें जो प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत हैं और देष के अधिकांश लोगों के लिए खाद्य तेल वसा का एक प्रमुख स्रोत है। इनकी क़ीमतों में वृद्धि लोगों के पोषण पर विपरीत प्रभाव डालती हैं।
देश में दालों की वार्षिक खपत लगभग 250 लाख टन है। 2020-21 के दौरान सरकार ने विभिन्न तरह की दालों का 30 लाख टन आयात करने की योजना बनाई है। हिन्दोस्तान दालों की खपत के साथ-साथ विष्व में एक महत्वपूर्ण आयातक भी है।
खाद्य तेलों और दालों दोनों मामलों में सरकार दर सरकार ने उत्पादन में कमी को पूरा करने के लिए आयात पर ध्यान केंद्रित किया है।
यह एक सोची-समझी नीति है, जो अंतर्राष्ट्रीय और हिन्दोस्तानी इजारेदारों की सेवा करती है, जो खाद्य तेलों और दालों के व्यापार पर हावी हैं। ये एकाधिकार अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू बाज़ारों में बहुत कम क़ीमतों पर इन्हें ख़रीदने के बाद, इन वस्तुओं की घरेलू क़ीमत बढ़ाने के लिए कार्टेल (उत्पादक संघ) बनाते हैं। लोगों को लूटा जाता है क्योंकि इन दैनिक आवश्यकताओं के लिए लोगों को बहुत अधिक क़ीमत चुकानी पड़ती है।
कथित तौर पर सरकार घरेलू क़ीमतों को विनियमित करने के लिए आयात शुल्क बढ़ाती या घटाती है, आयात पर प्रतिबंध लगाती है या हटाती है। इस प्रकार 15 मई, 2021 को केन्द्र सरकार ने अरहर, उड़द और मूंग की दाल के मुक्त आयात की घोषणा की। यह लोगों को यह समझाने के लिए किया गया है कि सरकार वास्तव में उनकी भलाई के बारे में कितना चिंतित है।
जब घरेलू क़ीमतें बढ़ती हैं तो किसान ज्यादा फ़सल बोते हैं और उत्पादन बढ़ाते हैं लेकिन क़ीमतें तब गिरती हैं जब कटाई का समय आता है क्योंकि सरकार क़ीमतों को कम करने के लिए आयात की अनुमति देती है या आयात शुल्क को कम करती है। इसलिए किसान अगले वर्ष फ़सल की बुआई को कम कर देते हैं और इससे उत्पादन में गिरावट आती है, जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा आयात होता है। यह चक्र चलता रहता है।
आयात पर निर्भरता को कम करने और अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों के साथ संबंध तोड़ने के लिए तिलहन और दलहन दोनों के उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि करने की आवश्यकता है। (दालों की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ने की बजाय वह गिर रही है)। उनका उत्पादन तभी बढ़ेगा जब किसानों को एक लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) और एम.एस.पी. पर उनकी उपज की ख़रीद का आश्वासन दिया जाएगा। सरकार दलहन और तिलहन के लिए एम.एस.पी. की घोषणा करती है, लेकिन बहुत कम ख़रीद एम.एस.पी. पर करती है इसका नतीजा यह होता है कि किसानों को वह मूल्य नहीं मिल पाता जो उन्हें मिलना चाहिए।
खाद्य तेलों और दालों के आयात पर निर्भरता की सरकार की नीति के परिणामस्वरूप तिलहन और दाल उगाने वाले किसानों के साथ-साथ जनता को भी लूटा जाता है। यह हिन्दोस्तानी और अंतर्राष्ट्रीय खाद्य एकाधिकार है जो इस नीति से मुनाफ़ा बनाते हैं।
अंतिम विश्लेषण में प्रश्न ये है कि अर्थव्यवस्था किस दिशा में चल रही है। क्या सामाजिक उत्पादन और विनिमय को पूरी आबादी की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाया जाना चाहिये या इसे अल्पसंख्यक पूंजीपतियों के मुनाफे़ को बढ़ाने के लिए? किसानों और मेहनतकशों की ज़रूरतों को पूरा करना ही इसकी प्रेरक शक्ति होनी चाहिये। इससे ही किसानों की आजीविका और मेहनतकश लोगों को खाद्य वस्तुओं की महंगाई से सुरक्षा मिलेगी।