ऑल इंडिया ट्रैक मेन्टेनर्स यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के साथ साक्षात्कार

रेलवे मज़दूरों के कार्य की परिस्थिति – भाग 3:

मज़दूर एकता लहर (म.ए.ल.) भारतीय रेल में लोको पायलट, गार्ड, स्टेशन मास्टर्स, रेलगाड़ी कंट्रोलर, सिग्नल व टेलीकॉम मेन्टेनन्स स्टाफ, ट्रैक मेन्टेनर्स, टिकट चेकिंग स्टाफ, आदि का प्रतिनिधित्व करने वाली श्रेणीबद्ध एसोसिएशनों के नेताओं के साथ साक्षात्कार करके, उनका प्रकाशन कर रहा है। इस श्रृंखला के तीसरे भाग में, यहां पर हम ऑल इंडिया ट्रैक मेन्टेनर्स यूनियन (ए.आर.टी.यू.) के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष, कामरेड धनंजय कुमार (डी.के.) के साथ किये गए साक्षात्कार को प्रस्तुत कर रहे हैं।

म.ए.ल. : हमें मालूम है कि भारतीय रेल के ट्रैक मेन्टेनर्स (पटरियों का रखरखाव करने वाले) के सामने अनेक समस्याएं हैं। सबसे पहले हम आप की सुरक्षा के बारे में पूछना चाहते हैं।

डी.के. : यह चैकाने वाली बात है कि ट्रैक मेन्टेनर्स की काम की परिस्थिति बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं है। यह 5 साल पहले बनी लवासा कमेटी की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है। रिपोर्ट के अनुसार पटरियों पर काम करते हुए, रेलगाड़ी के नीचे आकर हर महीने करीबन 40 ट्रैक मेन्टेनर्स की मौत हो जाती है। उसका मतलब है कि प्रति वर्ष 500 ट्रैक मेन्टेनर्स इस प्रकार की मौत मारे जाते थे। आज की संख्या तो उससे भी ज्यादा है।

मैं आप को बताना चाहूंगा कि हमारी काम की परिस्थितियां बहुत ही कठिन हैं। इससे हम तो ख़तरे में आते ही हैं और साथ ही साथ ट्रेन के साथ चलनेवाला भी ख़तरे में होता है – रेल चालक तथा रेल के गार्ड जिन्हें रोज़ अपने काम के दौरान यात्रा करनी पड़ती है। ज़रूर हमारी रेलगाड़ियों में रोज़ाना यात्रा करनेवाले करोड़ों यात्रियों को भी इस ख़तरे का सामना करना पड़ता है।

ट्रैक मेन्टेनर्स की समस्याओं में एक प्रमुख यह है कि हमारे काम के घंटे निर्धारित ही नहीं हैं। परिणामतः रेल अधिकारी मनमाने तरीक़े से और तानाशाही अंदाज से हमारा शोषण करते हैं। वे हमारे साथ इस तरह पेश आते हैं जैसे कि हम गुलाम हैं। ये अधिकारी हमसे असीमित काम करवाते हैं जो बहुत बार हमारी शारीरिक क्षमता से ज्यादा होता है। सुबह 8 से शाम के 5 बजे तक, यानी कि 9 घंटों के काम के बावजूद, अगर अधिकारी उससे संतुष्ट नहीं होते तो वे या तो हमें अनुपस्थित करार देते हैं या फिर पी/2 यानी सिर्फ आधे दिन के लिए उपस्थित मानते हैं।

हमारी काम की जगह एक ही नहीं होती और हमें सुबह 8 बजे ड्यूटी दी जाती है। शिफ्ट के पहले काम का नियोजन नहीं करते हैं। काम के लिए हाजिर होने के बाद हमें दूसरे भाग में भेजा जाता है और जहां पहुंचना बड़ा मुश्किल होता है।

हमारे औज़ार अंग्रेजों के जमाने के हैं जिनका वजन 40 से 50 किलो तक होता है। दो विभागों के बीच 8 किलो मीटर तक हमें इन औज़ारों को कंधों पर ढोना पड़ता है। औज़ारों के प्रयोग को सुविधापूर्ण बनाने के लिए रेलवे ने उनमें कोई भी सुधार नहीं किये हैं, इसकी वजह से बोझ बहुत बढ़ गया है। इतना भारी बोझ ढोने के बाद हम बहुत थक जाते हैं और जिसके बाद हमें अनिश्चित समय तक काम करना पड़ता है। इसका दुष्परिणाम ट्रैक मेन्टेनर्स की सुरक्षा पर ही पड़ता है और इसके साथ-साथ यात्रियों की सुरक्षा पर भी पड़ता है।

ट्रैक मेन्टेनर्स का एक मुख्य काम है रात में गश्त लगाना। हमें किसी भी मौसम में 20 किलोमीटर तक रात में अकेले ही गश्त लगानी पड़ती है, जैसे कि हमारे लिये सजा ए मौत फरमान जारी किया गया हो। इस दौरान हमें बहुत बार जहरीले कीडे-मकोड़ों के काटने का या जंगली जानवरों का ख़तरा रहता है। इसके अलावा रात में गश्त लगाने के लिए एक ही आदमी को भेजे जाने से यह होता है कि मोड़ या अन्ध बिन्दू (ब्लाइंड स्पोट) की वजह से आती हुई रेलगाड़ी को वह देख नहीं पाता और वह उसका शिकार हो जाता है। रेलवे इन ट्रैक मेन्टेनर्स की मौतों की ज़िम्मेदारी नहीं लेती है। रात में गश्त लगाने के लिए एक की जगह दो आदमियों को भेजकर उनके अनमोल जीवनों को बचाना भारतीय रेल के लिए मुमकिन है। इसके अलावा उनके लिये सुरक्षा उपकरणों का प्रावधान किया जाना चाहिये। अगर कोई रेलगाड़ी आ रही हो तो ऐसे उपकरण चेतावनी दे सकते हैं। रेलवे बोर्ड ने तीन साल पहले ऐसे उपकरणों को मंजूर किया था, लेकिन अब तक हमें वे नहीं मिले हैं।

की-मेन (पटरियों की जांच करके ठीक अवस्था सुनिश्चित करने वाले) को भी अकेले-अकेले काम करना पड़ता है, जिसकी वजह से वे भी ट्रेनों के द्वारा कुचले जाते हैं। की-मेन या पेट्रोलमेन (यानी कि गश्त लगानेवाला) को रोज़ाना पांच से दस किलोमीटर की दूरी तक पटरियों का निरीक्षण करना पड़ता है। उसे पटरियों के दोनों तरफ चलकर जाना होता है तथा रेल की दोनों का निरीक्षण करना होता है। इस कठिन काम के दौरान वह अकेला होता है। और इसके अलावा उसे 15-20 किलो के वजन के औजारों का बोझ भी ढोना पड़ता है। पेट्रोलमेनों को बहुत धीरे-धीरे चलना पड़ता है तथा पटरियों के हर एक सेक्शन को बहुत ध्यान से देखना पड़ता है। इस प्रकार की गश्त साल भर चलती है, फिर चाहे रात हो या दिन, बारिश हो या सर्दी या फिर गर्मी। वजनदार औजारों के बोझ से और इतनी लम्बी दूरी तक पटरियों के निरीक्षण की वजह से थकना तो निश्चित है और ऐसे में ट्रेन से कुचल जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। भारतीय रेल अगर की-मेन के साथ और एक आदमी का प्रावधान करे तो बहुत आसानी से उनकी जानें बचाई जा सकती हैं।

पटरियों के निरीक्षण तथा रखरखाव का इतना महत्त्वपूर्ण काम करने वाले हम ट्रैक मेन्टेनर्स को प्रबंधन की मर्जी से, किसी भी प्रमाण के बिना काम दिया जाता है। हमें दो या तीन दिनों का काम एक ही दिन में खत्म करने के लिए लक्ष्य दिये जाते हैं, जिनकी वजह से हमारे ऊपर तीव्र मानसिक तथा शारीरिक दबाव आ जाता है। इसी वजह से कई सारे ट्रैक मेन्टेनर्स रेलगाड़ियों के नीचे कुचले जाते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है।

म.ए.ल. : रात के काम में आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

डी.के. : अन्य समस्या यह है कि रात की पाली में काम करने की वजह से शरीर की दिनचर्या बदल जाती है जिसके बहुत से दुष्परिणाम होते हैं, जैसे कि अचन का होना, पेट की बीमारियों का होना आदि। रात में काम करने वालों को पर्याप्त समय की नींद नहीं मिल पाती है। निर्धारित समय में काम ख़त्म करना पड़ता है। रात में उन्हें बड़े-बड़े बोझ ढोने पड़ते हैं क्योंकि उनके परिवहन का कोई भी प्रावधान नहीं होता। इस बोझ को उन्हें अपने कंधों पर ही उठाना पड़ता है।

रात की पाली में काम करने वाले ट्रैक मेन्टेनर्स को जलपान मुहैया कराने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। उन्हें सिर्फ पानी मिलता है। जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य उपक्रमों में रात की पाली में काम करने वालों के लिये दूध तथा जलपान इंतजाम किया जाता है। रात की पाली में काम करने के दौरान ट्रैक मेन्टेनर्स को भी ये सब मिलना चाहिए।

दिन में काम करने वालों की ड्यूटी शाम को 4 बजे ख़त्म होती है। कभी-कभी उन्हें फिर से रात के 10 बजे काम के लिए बुलाया जाता है! यह बंद होना चाहिए क्योंकि इस तरीके से दो ड्यूटियों के बीच सिर्फ 6 घंटे का अवकाश ही होता है। इतनी कड़ी मेहनत करने के बाद फिर से इतनी जल्दी उनको कैसे बुलाया जा सकता है? अगर आने-जाने के समय का तथा नहाने-धोने के समय का ख्याल रखा जाए तो उन्हें विश्राम के लिए 6 घंटे भी नहीं मिलते!

इसके अलावा जब हमें नॉर्मल ड्यूटी के 8 घंटे बाद फिर से काम पर बुलाया जाता है, तो हमें दुगुनी दर से भुगतान मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है। यह भी एक शर्मनाक बात ही है कि रेलवे ने भत्तों में कटौती की है। अभी रात के भत्ते को 152 रुपये से घटाकर मात्र 118 रुपये कर दिया गया है।

म.ए.ल. : आपका काम आपके स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है?

डी.के. : हमारे वेतन बहुत ही कम हैं और रेल अधिकारी इतने निष्ठुर हैं कि हमें रेलवे कैंटीनों में पौष्टिक आहार प्रदान नहीं किया जाता। इसका मतलब यह है कि हम रोज़ाना जो कड़ी मेहनत करते हैं, उसे देखते हुए हमारा स्वास्थ्य बरकरार रखने के लिए हमें प्रचूर मात्रा में कैलोरी, प्रोटीन, विटामिन आदि नहीं मिलते हैं। हमें अपने परिजनों को भी संभालना पड़ता है, इसलिये हम पौष्टिक आहार की अपनी आवश्यकता को त्यागने के लिए विवश हैं। हमारी काम की परिस्थिति की वजह से हम अक्सर ख़तरनाक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। सैनिकों की तरह हम भी रोज़ाना कठोर मेहनत करते हैं। हमारे देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए सैनिकों को जिस प्रकार रोज़ाना पौष्टिक आहार दिया जाता है, वैसे प्रति वर्ष 900 करोड़ हिन्दोस्तानी लोग जिनका इस्तेमाल करते हैं, रेलवे की उन पटरियों को सुरक्षित रखनेवाल ट्रैक मेन्टेनर्स को भी आवश्यक पौष्टिक आहार मिलना चाहिए! सैनिक और ट्रैक मेन्टेनर्स, दोनों ही तो उसी केंद्र सरकार के लिए काम करते हैं। भारतीय रेल के मज़दूरों को रियायती दाम पर आवश्यक पौष्टिक खाना प्रदान करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।

हमारी काम की परिस्थिति बहुत कठिन है और पटरियों के रखरखाव के काम के दौरान हमें कई बार मानवीय मल से प्रदूषित गन्दे पानी में से गुजरना पड़ता है। हमें आवश्यक सुरक्षा सामग्री मुहैया नहीं की जाती है। जिसकी वजह से हम संक्रामक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। हमें बीमारी के उपचार के लिये भत्ता नहीं दिया जाता है।

एक और समस्या यह है कि हमें ट्रैक की बगल में तथा हर एक मौसम में चाहे 50 डिग्री की गर्मी हो, कड़ाके की ठंड हो या फिर भारी बारिश हो – खुले आसमान के नीचे ही भोजन करना पड़ता है। हमारे लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।

हमें कठिन परिश्रम का तथा जोखिम का भत्ता मिलना चाहिए।

इसके ऊपर हमारी एक समस्या और है। हमारे श्रेणी के जो और रेल मज़दूर हैं, वे (लिमिटेड डिपार्टमेंट कॉम्पेटिटिव एक्जाम) परीक्षा देकर पदोन्नति या किसी दूसरे विभाग में बदली की उम्मीद रख सकते हैं। लेकिन ट्रैक मेन्टेनर्स के लिए यह परीक्षा वर्जित है! ट्रैक मेन्टेनर्स के ऊपर यह बहुत बड़ा अन्याय है!

म.ए.ल. : क्या महिलाओं को ट्रैक मेन्टेनर्स बतौर रखा जाता है?

डी.के. : पूरे देश में 8,000 महिला ट्रैक मेन्टेनर्स बतौर काम करती हैं। उनकी काम की परिस्थिति तो इससे भी बदतर है। उनके लिए अलग विश्रामगृह या शौचालय नहीं हैं। हर रेलवे स्टेशन पर भी नहीं है और जब वे निरीक्षण के लिए जाती हैं या पटरियों की मरम्मत के लिए जाती हैं, तो वहां तो है ही नहीं। इसके अलावा उनको कई यात्रियों के गाली-गलौच या अभद्रभाषा का भी सामना करना पड़ता है।

म.ए.ल. : आपके काम के लिए आपको किस प्रकार का व्यक्तिगत किट दी जाती है?

डी.के. : लिखित में कई सारी चीजें हैं लेकिन प्रत्यक्ष ज़मीनी तौर पर कुछ भी नहीं है। 5 फरवरी, 2018 के रेलवे बोर्ड के सर्कुलर के अनुसार ट्रैक मेन्टेनर्स को हर छः महीने में सेफ्टी शूज, प्रति वर्ष रेनकोट, हर दो साल में सर्दी के लिए कपड़े, आने वाली ट्रेनों के बारे में चेतावनी देने वाल रक्षक उपकरण आदि मिलने चाहिएं। ये सभी रेलवे द्वारा निर्धारित किये हुए दर्ज़े के होने चाहिएं। लेकिन इनमें से कई चीजें हमें मिलती ही नहीं हैं और जो सामान मिलता है वह घटिया दर्ज़े का होता है। उदाहरण की तौर पर ऐसी अनेक जगहें हैं जहां 4 सालों में सेफ्टी शूज दिये ही नहीं गये हैं!

हमें दो ऐसे दस्ताने दिये जाते हैं जो बहुत ही जल्दी खराब हो जाते हैं। वे बढ़िया गणवत्ता होते नहीं हैं। ऊन के दस्ताने बहुत जल्द खराब हो जाते हैं। और दूसरे दस्ताने जो दिये जाते हैं वे इतने छोटे होते हैं कि हम उनको पहन ही नहीं सकते हैं। पिछले तीन सालों से हमें अपने आंखों की सुरक्षा के लिए काले चश्मे नहीं दिये गये हैं। हमें किसी भी प्रकार का स्वास्थ्य किट नहीं दी जाती।

म.ए.ल. : ट्रैक मेन्टेनर्स की काम की परिस्थिति का यात्रियों की सुरक्षा तथा सुविधा पर किस प्रकार का प्रभाव होता है?

डी.के. : हम सुरक्षा विभाग में हैं और पटरियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर है। हम ट्रैक मेन्टेनर्स की काम की परिस्थिति सुरक्षित तथा सुविधापूर्ण होनी चाहिए ताकि यह महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी हम ठीक से निभा सकें। यह सीधा-सीधा यात्रियों के फ़ायदे में भी होगा और उनके लिए वह बहुत मायने भी रखता है। खेद की बात है कि इसको पूरी तरह से नज़रंदाज़ तो किया ही जाता है, और तो और इसके विपरीत ही होता है। ट्रैक मेन्टेनर्स पर इतना दबाव होता है कि रेलगाड़ी से यात्रा करनेवाले हर किसी पर उसका बुरा असर होता है। इसके अलावा ट्रैक मेन्टेनर्स को ठेके पर रखना यह अपने आप में यात्रियों के लिए भी ख़तरनाक है।

म.ए.ल. : क़दम-दर-क़दम भारतीय रेल का जो निजीकरण किया जा रहा है उसका ट्रैक मेन्टेनर्स पर क्या प्रभाव हुआ है?

डी.के. : हम ट्रैक मेन्टेनर्स पर रेलवे के निजीकरण का बहुत बुरा असर हुआ है तथा हमें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पहली बात तो यह है कि हमें पदोन्नति नहीं मिलती क्यों कि उन्होंने पी.डब्ल्यू.एस. (पर्मनेन्ट वे सुपरवाइजर्स) के पदों को ख़ारिज़ कर दिया है। इससे हमारी पदोन्नति के मार्ग में बहुत रोड़े आ गये हैं। रेलवे ने 30,000 पी.डब्ल्यू.एस. पोस्ट ख़ारिज़ कर दिये गये हैं और इससे भारतीय रेल की सुरक्षा पर बुरा असर हुआ है। वे ट्रैक मेन्टेनर्स की संख्या कम कर रहे हैं तथा निजी मज़दूरों को ठेके के आधार पर रख रहे हैं। इससे काम के दर्ज़े को तथा रेलवे की सुरक्षा को क्षति पहुंचती है। ये ठेका मज़दूर ज़िम्मेदारी से काम नहीं कर पाते क्योंकि उनको मासिक वेतन सिर्फ 7,500 रुपये मिलता है। वे कई बार अपने उपकरण पटरियों पर ही छोड़ देते हैं जिससे दुर्घटनायें हो जाती हैं, रेलगाड़ियां पटरियों से उतर जाती हैं। उनको डीए तथा और भत्ते नहीं मिलते हैं।

म.ए.ल. : आज भारतीय रेल में कितने ट्रैक मेन्टेनर्स हैं और कितने पद मंजूर हैं?

डी.के. : आज 3 लाख ट्रैक मेन्टेनर्स काम कर हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ 2 लाख ही पटरियों पर काम करते हैं क्योंकि बाकियों से अधिकारी अलग-अलग मनमाने तरीक़े से काम करवाते हैं, जैसे कि ऑफिस का काम या उनके घर का काम। प्रत्यक्ष रूप से ट्रैक मेन्टेनर्स के 5 लाख पद मंजूर किये गये हैं। इसका मतलब यह है कि ट्रैक मेन्टेनर्स के एक गुट या गैंग में काम करने के लिए 50 व्यक्तियों की जगह केवल 20 होते हैं। इससे उनके ऊपर भारी दबाव होता है, जिसका जिक्र मैंने पहले ही किया है।

म.ए.ल. : क्या रेलवे के अधिकारी कई प्रकार के पदों को खारिज़ करके ट्रैक मेन्टेनर्स के मंजूर पदों को कम करने की राह पर जा रहे हैं?

डी.के. : नये लोगों को नौकरी पर नहीं रखना तथा मंजूरी प्राप्त पदों को ख़ारिज़ करना, यह रेल अधिकारियों के लिये नित्यक्रम बन चुका है। हाल ही में रेल अधिकारियों ने ऐसे तानाशाही आदेश जारी किये हैं जिनमें हम ट्रैक मेन्टेनर्स भी आते हैं। इनके अनुसार किसी भी मज़दूर की 55 साल की उम्र या 30 साल की सेवा जो भी पहले पूर्ण हो जाती है, उसे जबरदस्ती से सेवानिवृत्त किया जाएगा। यह निजीकरण को मद्देनजर रखते हुए किया जा रहा है।

म.ए.ल. : क्या ऑल इंडिया रेलवे ट्रैक मेन्टेनर्स यूनियन ने आपकी समस्याओं तथा अधिकारों के बारे में रेलवे के अधिकारियों को नोटिस दिया है?

डी.के. : हां जी, ऑल इंडिया रेलवे ट्रैक मेन्टेनर्स यूनियन ने ट्रैक मेन्टेनर्स की विविध समस्याओं के बारे में, एल.डी.सी.ई. को सबके लिए खोला जाये, कठोर मेहनत तथा जोखिम के भत्ते को 30 प्रतिशत किया जाये, रोग से उपचार के लिये भत्ता दिया जाये, नयी पेंशन योजना को ख़त्म किया जाये तथा रेलवे के निजीकरण के विरोध में रेलवे को नोटिस दिये गये हैं।

म.ए.ल. : इस पर रेलवे के अधिकारियों ने किस प्रकार की प्रतिक्रिया दी है?

डी.के. : रेल अधिकारियों ने बहुत ही कठोर, तानाशाही रुख अपनाया है। वे हमारी समस्याओं के प्रति ध्यान ही नहीं देते हैं।

म.ए.ल. : कामरेड धनंजय कुमार इस बहुत ही ज्ञानपूर्ण मुलाकात के लिए धन्यवाद। भारतीय रेल के ट्रैक मेन्टेनर्स की न्यायोचित मांगों के लिए आपको हमारा पूरा समर्थन है। यह ज़रूरी है कि सब रेल मज़दूरों के साथ-साथ संपूर्ण मज़दूर वर्ग तथा यात्री इन न्यायोचित मांगों का समर्थन करें!

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