वर्ष 2020 का आगाज़ नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) और प्रस्तावित नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एन.आर.सी.) के खिलाफ़ जन-विरोधों के साथ हुआ। दिसंबर 2019 में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और शाहीन बाग से शुरू होकर ये जन-विरोध देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालय परिसरों और शहरों में तेज़ी से फैल गया। तमाम समाजिक बंधनों को ठुकराते हुए युवतियों और वृद्ध महिलाओं ने इस आंदोलन को अगुवाई दी। आंदोलनकारियों ने एकता का नारा बुलंद करते हुए ऐलान किया कि हिन्दोस्तान हम सभी का है – फिर हमारा मज़हब, हमारा धर्म चाहे जो भी हो। राजकीय आतंक और दमन का बहादुरी से सामना करते हुए उन्होंने लोगों की एकता की हिफ़ाज़त की।
हुक्मरान वर्ग ने आंदोलन कर रहे लोगों को “देशद्रोही” करार देते हुए उनपर हमला किया। उत्तर पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक क़त्लेआम आयोजित किया और उसके बाद पीड़ित लोगों को गिरफ़्तार करके उनका उत्पीड़न करते हुए हुक्मरान वर्ग ने लोगों की एकता और हौसले को तोड़ने की कोशिश की। इसके ख़िलाफ़ सभी धर्मों के लोगों ने आगे बढ़कर इस सांप्रदायिक क़त्लेआम की कड़ी निंदा की और पीड़ित लोगों के लिए खाना, राहत और कानूनी सहायता का इंतजाम किया। अंत में सरकार ने कोविड-19 का बहाना देकर सभी तरह के प्रदर्शनों पर रोक लगा दी।
वर्ष 2020 में हिन्दोस्तान के मज़दूर वर्ग ने अपने रोज़गार, अपने सम्मान और ज़मीर के अधिकार पर हो रहे लगातार हमलों के ख़िलाफ़ विशाल प्रदर्शन आयोजित किये। साल की शुरुआत 8 जनवरी की सर्व हिन्द आम हड़ताल के साथ हुई। सरमायदारों के निजीकरण के कार्यक्रम और श्रम कानूनों में प्रस्तावित बदलाव के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में मज़दूर सड़कों पर उतर आये। सरकारी बैंकों, नगर-निगमों और परिवहन निगमों, बैंकों और बीमा कंपनियों के मज़दूर, निर्माण मज़दूर, शिक्षक, विश्वविद्यालयों के कर्मचारी और छात्र, आशा मज़दूर और मध्याहन भोजन (मिड डे मील) के मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों ने हाथों पर काले फीते बांधकर हड़ताल का समर्थन जाहिर किया।
कोविड-19 की महामारी के चलते जब देशभर में तालाबंदी लागू की गयी उस समय सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की दौलत में भारी मात्रा में बढ़ोतरी हुई, जबकि लाखों करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया और आज भी वे रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वेतन और दिहाड़ी के नुकसान की भरपाई करने या लोगों के लिए आवास का इंतजाम करने के लिए सरकार ने कुछ भी नहीं किया। सभी रेल गाड़ियों तथा यातायात के सभी सार्वजनिक साधनों को बंद कर दिया गया और लोगों को अपने घर गांव तक सुरक्षित जाने के लिए किसी भी सुविधा का इंतजाम नहीं किया गया। लाखों मज़दूर और उनके परिवार, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, सभी बगैर भोजन-पानी के सैकड़ों हजारों मील पैदल चलकर अपने घरों व गांवों को जाने को मजबूर हो गए। जब कई शहरों और गांवों में मज़दूरों ने इस अमानवीय हालतों के खि़लाफ़ आवाज़ उठाई तो उन पर पुलिस द्वारा बर्बरता से हमला किया गया। ऐसे भयानक हालातों में हमारे देश के शहरों और गांवों में रह रहे लोगों ने इन प्रवासी मज़दूरों और उनके परिवारों के लिए खाना, अन्य राहत सामग्री व सहायता का इंतजाम किया।
लोगों के प्रतिरोध को दबाने के लिए हुक्मरान वर्ग और उसके राज्य ने कोविड-19 का इस्तेमाल किया। आज भी कोविड को रोकने के नाम पर सरकार ने धारा 144 लगा रखी है, जो कोई भी अपने अधिकारों की मांग लेकर सड़कों पर उतरता है उसे पुलिस गिरफ़्तार कर लेती है। हुक्मरान वर्ग और उसके राज्य ने कई मज़दूर-विरोधी और किसान-विरोधी कानून पारित किये हैं और निजीकरण के कार्यक्रम को तेज़ी से लागू किया है।
लेकिन हमारे देश के मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों ने अपनी आवाज़ को दबाये जाने से साफ इंकार कर दिया। ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों ने अपने अधिकारों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन जारी रखे। कोयला मज़दूर, रेल मज़दूर, तेल कंपनियों के मज़दूर, हथियार बनाने वाली फैक्ट्रियों के मज़दूर और अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के मज़दूरों ने निजीकरण के ख़िलाफ़ कई विरोध प्रदर्शन आयोजित किये हैं। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने 26 नवंबर को वर्ष 2020 की दूसरी सर्व हिन्द आम हड़ताल आयोजित करते हुए, श्रम संहिता, निजीकरण के कार्यक्रम और अपने किसान भाइयों और बहनों पर हो रहे हमलों का लगातार और बिना कोई समझौता किये विरोध जारी रखने का अपना इरादा साफ कर दिया है।
वर्ष 2020 एक ऐसा वर्ष रहा जब हमारे देश के किसानों ने अपने अधिकारों पर हो रहे हमलों के विरोध में अप्रत्याशित एकता और दृढ़ता का परिचय दिया। देश के अलग-अलग राज्यों के किसानों के सैकड़ों लड़ाकू संगठन संघर्ष के एक झंडे तले एकजुट हो गए हैं। “दिल्ली चलो” का नारा देते हुए, उन्होंने सभी राज्यों के किसानों को 26-27 नवंबर को दिल्ली में इकट्ठा होने का आह्वान किया।
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देशभर के किसान, सरकार द्वारा जून में पारित तीन किसान-विरोधी और जन-विरोधी अध्यादेशों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए सड़कों पर उतर आये हैं। इन अध्यादेशों को सरकार ने सितंबर में कानून के रूप में पारित कर दिया। कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का यह आंदोलन कई राज्यों के जिलों और गांवों में फैल गया है। मज़दूरों और किसानों के कई संगठनों ने इकट्ठा होकर, कई संयुक्त सभाएं, रैलियां और प्रदर्शन आयोजित किये।
हुक्मरान वर्ग और उसके राज्य द्वारा लोगों की एकता को तोड़ने के लिए तमाम तरह की चालों और हथकंडों के बावजूद, जैसे-जैसे इस वर्ष का अंत हो रहा है देश और दुनिया देख रही है कि लोगों की एकता और भी अधिक मजबूत होती जा रही है। देश के मज़दूर, किसान और हर एक तबके के लोग अपने अधिकारों के लिए बहादुरी और दृढ़ता के साथ संघर्ष कर रहे हैं। वह अर्थव्यवस्था की मौजूदा दिशा का विरोध कर रहे हैं, जो केवल मुट्ठीभर इजारेदार पूंजीपतियो की लालच को पूरा करने का काम करती हैं, न कि लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने का। वे सवाल उठा रहे हैं कि यह किस तरह की सरकार है जो लोगों का प्रतिनिधित्व करने का दावा तो करती है, लेकिन इसे मेहनतकश लोगों की आवाज़ सुनाई नहीं देती है। लोग एक ऐसी व्यवस्था की मांग कर रहे हैं, जिसमें समाज के अधिकांश हिस्से के लोग – मज़दूर और किसान, सभी मेहनतकश लोग, देश के फैसले लेने वाले होंगे और अर्थव्यवस्था को अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ देंगे।
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