सबको शिक्षा क्यों नहीं एक समान?

“सबको शिक्षा क्यों नहीं एक समान?” – इस विषय पर 27 सितम्बर 2020 को मज़दूर एकता कमेटी द्वारा आयोजित वेब मीटिंग में कामरेड संतोष कुमार की प्रस्तुति

जब से हमारे देश को बस्तीवादियों से राजनीतिक आज़ादी हासिल हुई उस समय से हमें वादा किया जाता रहा है कि हमारे बच्चों को एक समान और अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा मुफ्त दी जाएगी।

जैसा कि संविधान की धारा 45, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में बताया गया है कि:

“राज्य का यह प्रयत्न रहेगा कि, संविधान के लागू होने के 10 वर्ष के भीतर 14 वर्ष तक की उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी।”

1964 में गठित कोठारी आयोग ने सिफारिश की कि सभी बच्चों को एक समान गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध की जाएगी, फिर उस बच्चे की जाति, उसका धर्म, समुदाय, भाषा, लिंग, आय का स्तर या सामाजिक ओहदा चाहे जो भी हो। इस आयोग द्वारा सरकार को 1966 में दी गयी रिपोर्ट में कहा गया था कि:

“(शिक्षा) व्यवस्था को गुणवत्ता और कार्य क्षमता के ऐसे स्तर पर बनाये रखा जायेगा, जिससे किसी भी परिवार को अपने बच्चे को इस व्यवस्था के बाहर भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी…”

समान स्कूल व्यवस्था के तहत बनाये गए स्कूल में पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला दिया जायेगा, इस विचार पर बल देने के लिए कोठारी आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि:

“इस प्रकार के स्कूलों की स्थापना से अमीर, विशेषाधिकार प्राप्त एवं ताक़तवर वर्गों के लोग सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में रुचि लेने के लिए मजबूर हो जायेंगे और इस तरह से व्यवस्था को जल्दी ही बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।”

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 ने कोठारी आयोग द्वारा एक समान स्कूल व्यवस्था बनाये जाने की सिफारिशों को स्वीकार किया। इसके 18 वर्ष बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में कहा गया कि:

“1968 की नीति में स्वीकार की गयी समान शिक्षा व्यवस्था की सिफारिशों को लागू करने की दिशा में प्रभावी क़दम उठाये जायेंगे”।

1990 में सरकार द्वारा गठित एक और आधिकारिक कमेटी राममूर्ति कमेटी ने कहा कि:

“शिक्षा में समानता एवं सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की समग्र रणनीति में, समान स्कूल व्यवस्था एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।”

एक समान स्कूल व्यवस्था का अर्थ है किसी भी इलाके में सभी बच्चों को बिना किसी अपवाद के एक ही स्कूल में दाखिला दिया जाना चाहिए और किसी को भी ठुकराया नहीं जाना चाहिए। इसका अर्थ है बालवाड़ी (किंडरगार्डन) से लेकर 12वीं कक्षा तक, पूरी शिक्षा के लिए सरकार सहायता देगी और बच्चों से कोई भी फीस वसूल नहीं की जाएगी। सभी स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात, क्लास-रूम का आकार, प्रयोगशालाएं, खेल का मैदान, पीने का पानी, शौचालय और अन्य सुविधाओं के मामले में एक समान न्यूनतम मानक पूरे करने होंगे। सभी शिक्षकों की एक सामान ट्रेनिंग होगी और उन्हें एक समान स्तर का वेतन दिया जायेगा।

मौजूदा संविधान को पारित किये हुए 70 वर्ष से अधिक का समय गुजर गया है। लेकिन आज भी देशभर में सभी बच्चों को एक समान दर्जे़ की शिक्षा प्रदान नहीं की जाती है। ऐसा क्यों है?

1950 में स्वीकार किये गए संविधान में बताया गया है कि 10 वर्षों के भीतर सभी को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाएगी। 1966 में कोठारी आयोग ने सिफारिश की कि 20 वर्ष के भीतर एक समान शिक्षा व्यवस्था क़ायम की जानी चाहिए। लेकिन उसके 20 वर्ष बाद भी ऐसा नहीं किया गया। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने कोठारी आयोग की सिफारिशों को स्वीकार तो कर लिया लेकिन कभी यह नहीं बताया कि उन्हें लागू क्यों नहीं किया गया। अब हम वर्ष 2020 में खड़े हैं। आज भी सभी के लिए समान गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध क्यों नहीं है?

1966 से लेकर आज तक तमाम आधिकारिक आयोगों ने बताया है कि निःशुल्क समान स्कूल व्यवस्था क़ायम करने के लिए सरकार को राष्ट्रीय आय का करीब 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करना होगा, यानी सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत। 1965-66 से 1990-91 के बीच केंद्र और राज्य सरकार का शिक्षा पर खर्चा 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 3.8 प्रतिशत हो गया था। उसके बाद यह गिरकर 3.1 प्रतिशत पर पहुंच गया है, जो कि इन तमाम आयोगों द्वारा बताये गए स्तर से करीब आधा है।

दुनियाभर में 193 देशों से जो आंकड़े संकलित किये गए हैं, उस सूची में जी.डी.पी. की तुलना में शिक्षा पर किये जा रहे खर्च के मामले में हमारा देश 143वें नंबर पर है। क्यूबा की सरकार जी.डी.पी. का 13 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती है। नॉर्वे में यह अनुपात 8 प्रतिशत, कनाडा में 5.5 प्रतिशत, चीन में 4 प्रतिशत और हिन्दोस्तान में यह केवल 3.1 प्रतिशत है।

सरकार द्वारा शिक्षा पर इतना कम खर्चा किये जाने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश सरकारी स्कूलों में शिक्षक, शौचालय, प्रयोगशाला, इत्यादि सुविधाओं की भारी कमी है। आज देशभर में लगभग 10 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। देशभर में सरकारी सहायता प्राप्त 12 लाख स्कूलों में से 40 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में केवल 2 शिक्षक हैं। एक लाख स्कूलों में तो सभी कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने के लिए केवल एक ही शिक्षक है। 6000 स्कूलों में तो शिक्षक ही नहीं हैं।

माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर तो उत्तर प्रदेश में आधे से अधिक शिक्षकों के पद खाली है। बिहार और छत्तीसगढ़ में 70 प्रतिशत से अधिक प्रधान शिक्षकों के पद खाली हैं। कई स्कूलों में माध्यमिक कक्षाओं को पढ़ाने वाले कई शिक्षकों को एक साथ सभी विषयों को पढ़ाना पड़ता है।

शिक्षकों को निर्धारित स्तर के वेतन पर भर्ती करने की बजाय अधिकांश राज्य सरकारें पिछले 20 वर्षों से उनकी जगह पर शिक्षकों को अस्थायी ठेके पर भर्ती कर रही हैं। इन शिक्षकों को “अतिथि शिक्षक” कहा जाता है और सामान्य नियमित शिक्षक की तुलना में उन्हें आधे से भी कम वेतन दिया जाता है। कई राज्यों में तो उनको मात्र 2000 रुपये प्रति माह दिए जाते हैं। बिहार में माध्यमिक स्तर पर 97 प्रतिशत शिक्षक अस्थायी ठेके पर काम कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में ऐसे शिक्षकों का अनुपात 69 प्रतिशत है, दिल्ली में 68 प्रतिशत, तेलंगाना में 55 प्रतिशत और झारखण्ड में 54 प्रतिशत है।

सभी सरकारी स्कूलों में नियमित शिक्षकों की भर्ती क्यों नहीं की गयी है? जब केंद्र सरकार बैंक का कर्ज़ा न चुकाने वाले कर्जदार पूंजीपतियों के लाखों करोड़ रुपये माफ़ कर सकती है, तो अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा के लिए वह पर्याप्त धन खर्च क्यों नहीं कर सकती? बुलेट ट्रेन और नए संसद भवन के निर्माण के लिए बड़ी मात्रा में धन खर्च किया जा रहा है। तो फिर सभी के लिए शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त मात्रा में धन क्यों नहीं दिया जा रहा?

इतने बड़े पैमाने पर बच्चों को अशिक्षित रखे जाने के लिए सरकारी प्रवक्ता तमाम तरह के बहाने बनाते हैं। वे शिक्षकों पर अपना फर्ज़ पूरा न करने का इल्ज़ाम लगाते हैं। लेकिन जब शिक्षकों को एक साथ कई कक्षाओं को पढ़ाना पड़ता है तो वे किस तरह से अपना फर्ज़ अदा कर सकते हैं?

कक्षा में शिक्षकों की कमी का मतलब है जो छात्र ऐसे स्कूलों में जाते हैं, जहां वे कुछ भी नहीं या बहुत कम सीख पाते हैं। वार्षिक शिक्षा सर्वे (ए.एस.ई.आर. 2019) की सबसे ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा के केवल 46 प्रतिशत बच्चे वर्णमाल के अक्षरों को पढ़ पाते हैं, 54 प्रतिशत बच्चे 1 से 9 के अंकों को पढ़ पाते हैं। तीसरी कक्षा के केवल आधे बच्चे पहली कक्षा की एक सामान्य किताब पढ़ पाते हैं।

सरकारी स्कूलों से बच्चों के निकल जाने (ड्राप-आउट) की प्रमुख वजह में से एक वजह है कि वे स्कूल में कुछ सीख नहीं पाते हैं। सरकारी स्कूल में दाखिला लेने वाले 100 बच्चों में से केवल 70 बच्चे 5वीं कक्षा से आगे पढ़ पाते हैं और केवल 50 बच्चे 8वीं कक्षा, 40 बच्चे 9वीं कक्षा और 20 बच्चे 12वीं कक्षा में जा पाते हैं।

जैसे-जैसे सरकारी स्कूलों का दर्ज़ा गिरता जा रहा है, ज्यादा से ज्यादा माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने की कोशिश कर रहे हैं और इसके लिए वे अपनी आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल की फीस पर खर्च करने को मजबूर हैं। केवल वही बच्चे सरकारी स्कूलों में रह गए हैं जो भारी फीस का खर्च नहीं उठा सकते। 2011 से 2016 के बीच देशभर के 20 राज्यों में सरकारी स्कूलों में बच्चों का दाखिला 1 करोड़ 30 लाख से गिर गया है, जबकि निजी स्कूलों में 1 करोड़ 50 लाख बच्चों का दाखिला हुआ है।

आज देशभर के क़रीब 35 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी प्रकार के निजी स्कूलों में जा रहे हैं, जबकि बाकी 65 प्रतिशत बच्चे सरकारी या सरकार सहायता प्राप्त स्कूलों में जा रहे हैं। अधिकांश निजी स्कूलों की गुणवत्ता बेहद ख़राब है। ये स्कूल बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने का दावा करते हैं और माता-पिता से ऊंची फीस वसूलते हैं, जबकि कक्षा चलाने के लिए अप्रशिक्षित शिक्षकों को काम पर लगाकर उन्हें बेहद कम वेतन देते हैं।

एक समान स्कूली व्यवस्था की जगह पर आज कई स्तरों के स्कूलों की एक व्यवस्था है, जहां प्रत्येक स्तर अलग तबके के बच्चों को दाखिला देता है। हर एक बड़े शहर में दर्जन भर ऐसे स्कूल हैं जो सबसे ऊंची गुणवत्ता की शिक्षा के साथ अंतर्राष्ट्रीय के प्रमाणपत्र देते हैं, जहां मासिक फीस 50,000 रुपये से अधिक है। इसके अलावा ऐसे हजारों निजी स्कूल हैं जो बहुत-अच्छी से लेकर बहुत बदतर गुणवत्ता की शिक्षा देते हैं, जहां मासिक फीस 3,000 से 16,000 रुपये के बीच है। एक परिवार जिसकी मासिक आय मात्र 15,000 रुपये है, उसे अपने दो बच्चों की शिक्षा के लिए 6000 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। जिनकी मासिक आय 50,000 के क़रीब है वे अपने हर बच्चे के लिए 15,000 रुपये प्रतिमाह खर्च करते हैं।

इसके अलावा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में भी कई स्तर हैं। चंद स्कूलों पर भारी खर्च किया जाता है, जैसे कि ग्रामीण जिलों में नवोदय विद्यालय। इसी तरह से शहरी इलाकों में कुछ सरकारी स्कूलों पर पर्याप्त खर्चा किया जाता है। इसके अलावा ऐसे भी स्कूल हैं जहां सरकारी अधिकारियों, सेना के अधिकारियों और केंद्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को दाखिला दिया जाता है।

स्कूल-पूर्व शिक्षा के पड़ाव से ही शिक्षा की गुणवत्ता में भारी अंतर शुरू हो जाता है। 6 से 9 वर्ष की उम्र का यह पड़ाव इंसान के मानसिक विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। बच्चों के एक बेहद छोटे तबके को इस उम्र में अच्छी गुणवत्ता वाले नर्सरी स्कूलों में पढ़ने का मौका मिलता है। अधिकांश बच्चे सरकार के आंगनवाड़ी केंद्रों में जाते हैं, जहां एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता पर बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी डाली जाती है। इन आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को न तो प्रशिक्षण दिया गया है, न ही उन्हें अच्छी पढ़ाई करने का मौका मिला है और उन्हें बेहद कम पैसे दिए जाते हैं। अधिकांश ग़रीब परिवारों के बच्चे इस उम्र में किसी भी तरह के स्कूल में नहीं जाते हैं।

2010 में संसद ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। लेकिन हमारे देश में अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा केवल कुछ मुट्ठीभर बच्चों को ही नसीब होती है। यदि शिक्षा एक अधिकार है तो फिर क्यों यह अधिकार सभी बच्चों को हासिल नहीं है?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि सभी निजी स्कूलों में जिनको किसी भी तरह की सरकारी सहायता दी गयी है, उन्हें 8वीं कक्षा तक 25 प्रतिशत सीटें ऐसे परिवारों के बच्चों के लिया आरक्षित करना अनिवार्य है जो आर्थिक रूप से कमजोर तबके से आते हैं, जिन्हें आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके (ई.डब्ल्यू.एस.) कहा जाता है। निजी स्कूलों में इन बच्चों की पढ़ाई के लिए सरकार पैसा देती है। ग़रीब परिवारों के बच्चों को शिक्षा का समान अवसर दिलाने की दिशा में इस प्रावधान को एक बहुत बड़ा क़दम बताया गया था।

लेकिन असलियत में इस ई.डब्ल्यू.एस. कोटा से भ्रष्टाचार की एक नयी व्यवस्था पैदा हो गयी है, जहां माध्यम आय पाने वाले परिवार फर्ज़ी प्रमाणपत्र के आधार पर अपने बच्चों को इन स्कूलों में दाखिला दिला रहे हैं।

ई.डब्ल्यू.एस. के नियमों के अनुसार परिवार की कुल वार्षिक आय एक लाख रुपये से कम होनी चाहिए। यह सीमा इतनी कम है कि एक मज़ाक लगती है, क्योंकि यह सरकार द्वारा निर्धारित कानूनी न्यूनतम वेतन से भी कम है। इस वजह से अधिकांश परिवार जो अपने बच्चों का दाखिला ई.डब्ल्यू.एस. कोटा के तहत करना चाहते हैं, वे अपनी आय के बारे में झूठ बोलने को मजबूर हो जाते हैं।

यदि किसी परिवार की वार्षिक आय वाकई में 1 लाख से कम है और वह अपने बच्चे को दाखिला दिलाने में सफल हो भी जाता है, लेकिन जैसे ही उसकी आय 1 लाख रुपये की सीमा को पार कर जाती है तो उससे सरकारी अनुदान की सुविधा छीन ली जाती है। इसके अलावा जैसे ही बच्चा 9वीं कक्षा में जाता है, उसके माता-पिता को स्कूल की पूरी फीस भरनी पड़ती है।

ई.डब्ल्यू.एस. कोटा के तहत जिन ग़रीब परिवारों के बच्चों को ऐसे स्कूलों में दाखिला मिलता है, वहां उनकी तादाद बहुत कम होती है और वे इन स्कूलों में अच्छी तरह से मेलजोल नहीं कर पाते हैं। उनको एक ऐसे वातावरण में रहना पड़ता है जहां उनके सहपाठियों के पास खर्चा करने के लिए ढेर सारा पैसा होता है और इससे उनको बहुत सारी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है।

ई.डब्ल्यू.एस. समान स्कूल व्यवस्था का विकल्प नहीं हो सकता। यह सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा की ज़रूरत कभी भी पूरी नहीं कर सकता, जो हर एक बच्चे का बुनियादी अधिकार है।

हर बच्चे के लिए शिक्षा एक सार्वभौमिक अधिकार है, जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, यह तभी संभव हो सकता है जब एक समान शिक्षा व्यवस्था क़ायम की जाए। आज़ादी के 70 साल बाद अभी तक यह नीतिगत उद्देश्य क्यों हासिल नहीं किया जा सका? सभी बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा समान गुणवत्ता की क्यों नहीं है?

हाल ही में घोषित की गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में समान स्कूल व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य का जिक्र तक नहीं है। सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करने के उद्देश्य क्यों हटा दिए गए हैं?

शिक्षा में सामाजिक आधार पर स्तर-विभाजन और स्कूली शिक्षा हासिल करने में भारी गैर-बराबरी, दुनियाभर में औद्योगिक क्रांति से पूर्व के समाज में एक आम बात थी। आधुनिक उद्योगों के विकास से शिक्षित और हुनरमंद मज़दूरों की मांग पैदा हुई। पुरातन सामंती व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष ने जनवादी आंदोलनों को जन्म दिया और दुनियाभर के कई देशों में स्कूली शिक्षा के समान मानक स्थापित किये गए। समान स्कूली शिक्षा व्यवस्था के इनमें से कुछ रूप जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, नॉर्वे, कनाडा, चीन, रूस, जापान, क्यूबा, उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया में आज भी मौजूद हैं। इन देशों में आज भी क़रीब-क़रीब सभी बच्चों को एक समान गुणवत्ता की शिक्षा हासिल है। हिन्दोस्तान में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

इसकी वजह यह है कि हमारा समाज आज भी इस आधार पर बना हुआ है कि केवल कुछ ही लोग अच्छी शिक्षा पाने के लायक हैं। इसका स्रोत सदियों पुरानी जाति व्यवस्था में निहित है। बर्तानवी हुक्मरानों ने जानबूझकर इस व्यवस्था को बरकरार रखा, क्योंकि यह उनके हित में था। और आज़ादी के बाद भी इसे बरकरार रखा गया।

बर्तानवी राज ने अपने प्रशासन तंत्र में समाज की ऊंची जाति के लोगों को नौकरी दी। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जो इस तरह के चंद मुट्ठीभर लोगों को पैदा करेगी जो अंग्रेजी बोलगें, जो अंग्रेजी मूल्यों को अपनाएंगे और बाकी हिन्दोस्तानियों का तिरस्कार करेंगे। उन्होंने स्कूल और कॉलेज की एक शिक्षा व्यवस्था बनाई जो अधिकारियों का एक ऐसा तबका तैयार करेगी जो उनके प्रति वफादार होंगे और क्लर्क का एक आज्ञाकारी तबका होगा जो उनके आदेशों का पालन करेगा।

आज़ादी के बाद हिन्दोस्तान के नए हुक्मरानों – पूंजीपति घरानों, ज़मीनदारों और शाही घरानों ने – बर्तानवी हुक्मरानों द्वारा बसाई गयी इस व्यवस्था को बरकरार रखा, क्योंकि यह उनके हित में थी। आज करोड़ों लोग अशिक्षित या बेहद कम शिक्षित हैं, इसका फ़ायदा फैक्ट्री, दुकानों, निर्माण कंपनियों और अन्य उद्यमों के मालिकों को होता है, क्योंकि इन अकुशल या अर्ध-कुशल मज़दूरों को बेहद कम वेतन पर काम पर रखना संभव होता है। जो पूंजीपति अकुशल और अर्ध-कुशल मज़दूरों से बेहद कम वेतन पर काम कराकर मुनाफ़े बना रहे हैं वे नहीं चाहते हैं कि सभी लोग शिक्षित हों। वे चाहते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी ये मज़दूर अशिक्षित बने रहें और अपने हालात को पिछले जन्म के कर्मों का फल समझते रहें। वे जानते हैं कि यदि सभी लोग शिक्षित हो जायेंगे तो वे एकजुट होकर अपने अधिकारों की मांग करेंगे।

हमारे देश में एक समान स्कूल की व्यवस्था क्यों नहीं, यह इसकी असली वजह है। यही इसकी असली वजह है कि क्यों शिक्षा चंद मुट्ठीभर लोगों का विशेषाधिकार है, हालांकि शिक्षा के सार्वभौमिक अधिकार को कानूनी रूप से स्वीकार किया गया है।

स्कूली शिक्षा में वर्ग-विभाजन समाज में मौजूद वर्ग-विभाजन का प्रतिबिंब है। यह सदियों पुरानी इस मान्यता का प्रतिबिंब है कि केवल कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही शिक्षा पाने के लायक हैं, जबकि समाज के बाकी सभी लोग केवल निचले दर्जे के शारीरिक और मलिन काम करने के लायक हैं। साथ ही यह वर्ग-विभाजित शिक्षा व्यवस्था मौजूदा वर्ग और जाति की व्यवस्था को जीवित और बरकरार रखने के काम आती है। यह एक ऐसी व्यवस्था को पनपने देती है जो सारी संपत्ति बड़े पैमाने के उत्पादन के साधनों के मालिक चंद मुट्ठीभर पूंजीवादी घरानों के हाथों में इकट्ठा करने का काम करती हैं। यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां मज़दूरों के वेतन को केवल एक खर्चे के रूप में देखा जाता है, जिसे लगातार कम करना है।

यदि सभी बच्चों को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो जाये तो कौन इन अमीरों के महल खड़े करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह, निर्माण स्थलों पर खानाबदोशों की तरह भटकता रहेगा? कौन इनके कारखानों, दुकानों में, दफ्तरों, खेतों में और रेलवे के ट्रैकमेन बनकर सबसे कम वेतन पर काम करेगा? यह हमारे देश के चंद मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त हुक्मरानों की सोच है।

यह सोच उन लोगों के दिमाग में भर दी गयी है, जो पढ़े-लिखे हैं, जिनको लगता है कि उनका ओहदा अन्य लोगों से ऊंचा है और अशिक्षित लोगों को अपना नौकर बनाकर रखना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि सभी शिक्षित हो जायेंगे तो हमारे संडास कौन साफ करेगा? कौन हमारे घर पर झाड़़ू पोछा करेगा? यह इन लोगों की सोच है!

हमारे देश में सभी के लिए समान शिक्षा व्यवस्था इसलिए नहीं है क्योंकि मौजूदा श्रेणीबद्ध व्यवस्था लोगों को बांटे रखने और मौजूदा गैर-बराबर सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का काम करती है।

जिन लोगों ने अपने हाथों में विशाल धन संपत्ति इकट्ठा कर रखी है और जिनका सरकार पर दबदबा चलता है वे इस सामाजिक श्रेणीबद्ध व्यवस्था को ख़त्म नहीं करना चाहते। वे नहीं चाहते कि समान स्कूली व्यवस्था क़ायम की जाये।

पूंजीवादी घराने दुनियाभर के बाज़ारों में होड़ लगाने के लिए हमारे देश के सस्ते श्रम का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। वे शिक्षा व्यवस्था में केवल वह सुधार करना चाहते हैं जिससे उनके मैनेजरों, इंजीनियरों व अन्य पेशेवरों की गुणवत्ता में बढ़ोतरी हो जबकि बहुसंख्य लोग उनके लिए सबसे निचले वेतन स्तर पर शारीरिक काम करने के लिए उपलब्ध हों। वे शिक्षा क्षेत्र का विस्तार बड़े मुनाफ़े कमाने के लिए करना चाहते हैं, खासतौर से उच्च शिक्षा। इसके लिए वे विश्व स्तर के शिक्षा संस्थान बनाना चाहते हैं जहां फीस के लिए मोटी रकम वसूली जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 हमारे देश के अमीर पूंजीवादी घरानों की इस इच्छा को पूरा करने के लिए बनायी गयी है।

मज़दूर और किसान जो कि हमारे देश की अधिकांश आबादी हैं, अपने बच्चों के लिए अपने से भी बेहतर शिक्षा चाहते हैं। यही इच्छा हमारे देश के ग़रीब-से-ग़रीब मेहनतकश परिवार की है। उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए हमें समान स्कूल व्यवस्था क़ायम करने के लिए सही मायने में एक आंदोलन खड़ा करने की ज़रूरत है। हिन्दोस्तान को सभ्यता के ऊंचे रास्ते पर ले जाने के लिए ऐसी व्यवस्था की सख़्त ज़रूरत है।

शिक्षा कोई विशेषाधिकार नहीं है। यह हम सभी का सार्वभौमिक अधिकार है। अब समय आ गया है कि हमारे देश से वर्गीकृत और श्रेणीबद्ध स्कूल की व्यवस्था को ख़त्म किया जाये और इसकी जगह पर समान स्कूल व्यवस्था क़ायम की जाए।

आइये हम सब इस मांग के लिए एकजुट हों और इसे हासिल करने के लिए सभी तबकों के लोगों को लामबंध करें।

समान गुणवत्ता की शिक्षा हमारा बुनियादी अधिकार है!

आइये! हमारे देश में समान स्कूल व्यवस्था क़ायम करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करें!

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