कोरियाई युद्ध से सबक

इस वर्ष कोरियाई युद्ध के शुरुआत की 70वीं सालगिरह है। इस खूनी और बर्बर युद्ध में करीब 40 लाख लोग मारे गए थे और पूरे कोरियाई प्रायद्वीप में कई शहर, नगर और गांव बर्बाद हो गए थे। इस युद्ध के अंत में स्वाभिमानी और एकजुट कोरिया का बंटवारा हो गया था, जो आज तक चलता आ रहा है। वैसे तो युद्ध 1953 में समाप्त हो गया था, लेकिन आज तक इस प्रायद्वीप को बीच से बांटने वाली सरहद के दोनों ओर सैकड़ों हजारों सैनिक एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं, जिसे फोर्टीफायड बफर ज़ोन (डी.एम.जेड.) कहा जाता है। इस तरह से कोरिया दुनिया में सबसे अधिक सैनिकीकृत क्षेत्र बन गया है। इस सरहद के दोनों तरफ हजारों कोरियाई परिवार बांट दिए गए हैं और उन्हें सरहद पार अपने परिजनों से मिलने की कोई उम्मीद नहीं बची है।

कोरियाई युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद, मुख्य तौर से अमरीकी साम्राज्यवाद का पूरी दुनिया पर अपना दबदबा जमाने के मक़सद से और समाजवाद एवं कम्युनिज़्म के तेज़ी से बढ़ते प्रभाव को कम करने की कोशिश में छेड़ा गया था। लेकिन दुनियाभर के प्रचार माध्यमों पर अपने नियंत्रण के ज़रिये अमरीकी साम्राज्यवाद यह दावा करता आया है कि यह युद्ध इसलिए शुरू हुआ क्योंकि “कम्युनिस्ट उत्तरी कोरिया” ने “जनतांत्रिक दक्षिण कोरिया” पर हमला कर दिया था। अमरीका यह दावा करता है कि उसने संयुक्त राष्ट्र संघ के अंग बतौर अपनी सेना को दक्षिण कोरिया में “जनतंत्र” की हिफाज़त और कम्युनिस्ट ताक़तों को पीछे हटाने के मक़सद से तैनात किया था। इस युद्ध को शुरू करने के लिए कौन ज़िम्मेदार था, लोगों पर भयंकर जुल्म ढाने के लिए कौन ज़िम्मेदार था, इसकी असलियत को जानने के लिए हमें इस जंग की सच्चाई को ओर उस समय में मौजूद हालातों को परखना होगा।

20वीं सदी से पहले करीब एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से कोरिया एकजुट और आज़ाद देश रहा है। लेकिन 1910 में आक्रामक रूप से उभरते जापान ने कोरिया पर हमला कर दिया और अपना कब्ज़ा जमा लिया। अगस्त 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जब जापान की हार हो गयी, उस समय कोरियाई लोगों को यह उम्मीद थी कि अब उनका देश अपनी आज़ादी को फिर से हासिल कर लेगा। द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम पड़ाव पर अमरीका और सोवियत संघ सहित सभी अलाइड ताक़तों (मित्र देशों) ने इस बात को स्वीकार किया था। कोरिया के पड़ोस में अलाइड ताक़तों का हिस्सा बतौर सोवियत सेना ने जापानी सेना के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने के लिए कोरिया में प्रवेश किया था। इसके जवाब में जापान में तैनात अमरीकी सेना तुरंत कोरिया की ज़मीन पर उतर गयी, ताकि सोवियत सेना को आगे बढ़ने से रोक सके। अमरीकी अधिकारियों ने अपनी मनमर्जी से देश के बीचों-बीच 38वीं पैरलल पर एक रेखा बनायी और ऐलान कर दिया कि उस रेखा के दक्षिण क्षेत्र में जो भी ज़मीन है उसपर अमरीकी सेना का कब्ज़ा है। कुछ ही समय में यह रेखा एक सैनिकी सरहद में तब्दील हो गयी और कोरियाई लोगों को परमिट के बगैर इस रेखा को पार करने पर पाबंदी लगा दी गई।

इस बीच जापानी सत्ता के कमजोर होने पर कोरिया के देशभक्त लोगों की पीपल्स कमेटियां, सत्ता की बागडोर को अपने हाथों में लेने के लिए पूरे देश से उभर कर आईं। अमरीकी अधिकारियों ने इन कमेटियों को और कोरिया के बस्तीवाद-विरोधी बहादुरों और कम्युनिस्टों की अगुवाई में स्थापित कोरिया के लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया) को मान्यता देने से इंकार कर दिया। जब कोरियाई कम्युनिस्ट और अन्य देशभक्त शक्तियां कोरिया में अपनी सत्ता कायम करने की स्थिति में थे, उन हालातों में कोरिया की आज़ादी को टालने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र संघ को तथाकथित रूप से आज़ादी की ओर कोरिया का मार्गदर्शन करने के लिए “ट्रस्टीशिप” स्थापित करने का प्रस्ताव पेश किया। अपनी आज़ादी को टाले जाने, और अपने देश के बंटवारे को रोकने के लिए कोरिया के लोगों ने 1946 और 1948 के बीच कई बार अमरीकी सैनिक कब्ज़े के ख़िलाफ़ विद्रोह किया। इनमें से एक विद्रोह 1948 में जेजू द्वीप पर हुआ, जिसको अमरीकी सेना ने अपने कोरियाई चमचों के साथ मिलकर बेरहमी से कुचल दिया। अमरीका के कोरियाई चमचों में से कईयों ने इससे पहले जापानी बस्तीवादियों की सेवा की थी। इनमें से अधिकांश बड़े विद्रोह कोरिया के दक्षिणी हिस्से में हुए। इस समस्या को हल करने के लिए अमरीकी-सोवियत संयुक्त आयोग का गठन किया गया। सितम्बर 1947 में इस आयोग में सोवियत प्रतिनिधि तेरेंती शत्योकोव ने प्रस्ताव दिया कि अमरीका और सोवियत संघ दोनों ही कोरिया से अपनी सेनाओं को हटा लें और कोरिया के लोगों को खुद अपनी सरकार बनाने का मौका दिया जाए। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

मई 1948 में अमरीका ने कोरिया के दक्षिणी हिस्से में फर्जी चुनाव कराये और अपने चमचे, अति-प्रतिक्रियावादी सिंगमैन री को सत्ता पर बिठाया। सोवियत संघ ने इस चुनाव का विरोध किया और कोरिया के दक्षिण हिस्से की कई राजनीतिक पार्टियों और नेताओं ने इसका विरोध और बहिष्कार किया। लेकिन अमरीका ने नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ हेराफेरी करते हुए उसपर नियंत्रण हासिल किया और कोरिया में सिंगमैन री की सरकार को “कोरियाई गणतंत्र” की “जायज़ सरकार” करार दिया। अमरीका ने औपचारिक तौर पर सिंगमैन री को सत्ता की बागडोर थमाई और साथ ही कोरिया में बड़े पैमाने पर अपनी फ़ौजी मौजूदगी को बनाये रखा। इसके बाद सितम्बर 1948 को कोरिया के उत्तरी हिस्से में किम इल-सुंग की अगुवाई में डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डी.पी.आर.के.) की स्थापना की गयी। 1948 में सोवियत संघ ने उत्तरी कोरिया से अपनी सेना को वापस बुला लिया।

1948 से 1950 के बीच कोरिया को उत्तर और दक्षिण में बांटती हुई 38वीं समानांतर-रेखा पर लगातार टकराव जारी रहे। इसके अलावा योसु विद्रोह जैसे कई प्रमुख विद्रोह कोरिया के दक्षिण हिस्से में जारी रहे जिन्हें दक्षिण कोरिया में स्थापित नयी सत्ता की सेना और उसके सशस्त्र बलों ने बेरहमी से कुचल दिया। जिस किसी व्यक्ति पर कम्युनिस्ट या उनका समर्थक होने का शक था उनको परिवार सहित बर्बर तरीके से सताया गया और मार डाला गया। अमरीका और दक्षिण कोरिया की सरकारों ने इन हत्याओं और मानव अधिकारों के उल्लंघन की ख़बर को कई दशकों तक दबा के रखा। लेकिन पिछले कुछ दशकों में दक्षिण कोरिया की सरकार और लोगों ने बड़ी मुश्किलों के साथ इन हत्याओं की जानकारी हासिल की और उसका पर्दाफाश किया। यह जानकारी अब सार्वजनिक हो गयी है।

अंत में 1950 में उत्तरी कोरिया की सेना ने 38वीं समानांतर-रेखा को पार करते हुए दक्षिण में प्रवेश किया और कोरिया के पुनर्मिलन की कोशिश की। इस युद्ध के दौरान जल्दीबाजी में पीछे हटती अमरीकी सेना ने कोरियाई लोगों का बहुत बड़े पैमाने पर क़त्लेआम किया। इसमें से सबसे कुख्यात नो गन री का क़त्लेआम है, जहां अमरीकी सेना ने खास तौर से निहत्थे महिला और बच्चों को सैकड़ों की तादाद में मार डाला जो इस लड़ाई से बचने के लिए एक रेलवे के पुल के नीचे पनाह ले रहे थे। अमरीकी सेना की 7वीं कैवेलरी ने इस पुल पर कई बार बमबारी और गोलीबारी की। उसके बाद अमरीका ने “ऑपरेशन क्रोमाइट” चलाया और 15 सितम्बर को बड़े पैमाने पर अमरीकी सेना को कोरियाई प्रायद्वीप पर उतारा। जब अमरीका-नीत सेना 38वीं समानांतर-रेखा को पार करने की कागार पर थी, उस समय अक्तूबर में नव-स्थापित चीन लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) उत्तरी कोरिया की सेना की मदद के लिए सामने आया।

इसके बाद कोरिया के ज़मीनी-युद्ध में गतिरोध पैदा हो गया। अंत में युद्ध समाप्त हुआ, लेकिन शांति समझौते के ज़रिये नहीं, बल्कि 27 जुलाई, 1953 को एक अस्थायी युद्धविराम के रूप में किया गया। 1950 से 1953 के बीच अमरीकी वायुसेना ने बड़े पैमाने पर असैनिक स्थानों को भयानक बमबारी का निशाना बनाया। इस वजह से कोरियाई युद्ध में हुई साधारण लोगों की मौत का अनुपात द्वितीय विश्व युद्ध या बाद में हुए वियतनाम युद्ध सहित अन्य सभी युद्धों की तुलना में सबसे अधिक है। उत्तरी कोरिया की आबादी के 12 से 15 प्रतिशत लोगों ने इस युद्ध में अपनी जान गंवाई। अमरीका ने कोरिया पर नेपाॅम बम का इस्तेमाल किया जिससे हजारों लोग मरे गए और जो लोग इन हमलों में जीवित बच गए वह जीवनभर के लिए विकलांगता और शारीरिक विरूपता के शिकार हो गए। अमरीका ने इस “स्कोर्चेड अर्थ पालिसी” को जानबूझकर कोरियाई लोगों पर जुल्म ढाने की रणनीति के तहत लागू किया, इसका सबूत अमरीकी कमांडर जनरल डगलस मैकआर्थर के इन शब्दों में साफ मिलता है। उसने ऐलान किया कि “उत्तरी कोरिया में प्रत्येक अधिष्ठान, सुविधा और गांव, अब सैनिक और रणनैतिक तौर पर हमारे निशाने पर हैं”। और अमरीकी वायुसेना के जनरल स्ट्रेटेमेयेर के सामने उसने दोहराया कि: “यदि आप चाहें तो उनको जला डालें। इतना ही नहीं, स्ट्रेटेमेयेर, आप एक सबक के तौर पर किसी भी अन्य गांव या शहर को जला सकते हैं, उसे बर्बाद कर सकते हैं, जो आपकी नज़र में दुश्मन के लिए किसी भी काम का हो।” (तायवू किम, “लिमिटेड वॉर, अनलिमिटेड टारगेट्स”, क्रिटिकल एशियाई स्टडीज 44ः3 (2012), पृष्ठ 480, 482)। युद्ध के अंतिम पड़ाव में अमरीकी सेना ने एक दुष्ट रणनीति अपनाई। उन्होंने उत्तर कोरिया में बने बांधों को बमबारी का निशाना बनाया। इसका मक़सद केवल हजारों-लाखों लोगों को पानी में डुबाकर मार डालना ही नहीं था, बल्कि उत्तरी कोरिया की कृषि अर्थव्यवस्था को नष्ट करना था ताकि लोग भूख से मर जाएं।

इस तरह से कोरियाई युद्ध के दौरान अमरीका का असली चरित्र, आधुनिक युग की नयी साम्राज्यवादी महाशक्ति के रूप में सबके सामने खुलकर आया। इस युद्ध से अमरीका में सैनिक-औद्योगिक संकुल के विकास को बहुत बढ़ावा मिला। इस युद्ध के साथ दुनियाभर में अमरीका के स्थायी सैनिक अड्डों के एक जाल के विकास और तैनाती की शुरुआत हुई। कोरियाई युद्ध के दौरान और उससे पहली हुई घटनाओं ने इस नयी महाशक्ति के असली चरित्र का पूरा खुलासा कर दिया, जिसने “जनतंत्र” और “मानव अधिकारों” की बड़ी-बड़ी बातें करते हुए, बड़ी ही निर्दयता से निहत्थे लोगों पर नेपाॅम बम बरसाए, अन्य देशों में लोकप्रिय शक्तियों को दबाया और कई देशों को मरूस्थल में तब्दील कर दिया। आज भी अमरीकी साम्राज्यवाद का यही चरित्र है। उसका यह चरित्र वियतनाम युद्ध, उसके बाद अफ़गानिस्तान, लिबिया और सिरिया तथा अन्य देशों में सामने आया। दुनियाभर के लोगों को कोरियाई युद्ध से सबक लेना चाहिए और यह जान लेनी चाहिए कि दुनियाभर के देशों की आज़ादी, संप्रभुता और एकता के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद सबसे बड़ा ख़तरा है।

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