द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की 75वीं वर्षगांठ पर

भाग 5: युद्ध का अंत और विभिन्न देशों और लोगों के उद्देश्य

दूसरे विश्व युद्ध के अंत में, समाजवादी सोवियत संघ विजयी शक्तियों में से एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरा। वह दुनियाभर के उन सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन गया जो अपने देश को उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त करने के लिए लड़ रहे थे। दूसरी ओर अमरीकी साम्राज्यवाद एक प्रतिक्रियावादी, कम्युनिस्ट-विरोधी, साम्राज्यवादी खेमे के नेता के रूप में उभरकर सामने आया।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में बनी स्थिति के बीच मुख्य अंतर यह है कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, एक शक्तिशाली समाजवादी राज्य मौजूद था जो युद्ध के दौरान हुए भारी नुकसान के बावजूद, विजयी शक्तियों में से एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरा, जिसका सम्मान दुनियाभर के लोगों के बीच बहुत बढ़ गया था। दुनियाभर में साम्राज्यवादी शक्तियों के विभिन्न उपनिवेशों में लोग सोवियत संघ को एक आदर्श और अपने मुक्तिसंघर्षों में एक सच्चे मित्र के रूप में देख रहे थे।

इसलिए, युद्ध समाप्त होने से पहले ही, जब ऐसा लग रहा था कि एक्सिस शक्तियां ( ऐक्सिस शक्तियां या धुरी शक्तियां उन देशों का गुट था, जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी का साथ दिया था) पराजित होने वाली हैं, तो अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में मित्र देशों ने तुरंत एक नए हमले की तैयारी शुरू कर दी। और इस बार हमला सोवियत संघ के ख़िलाफ़ था। उन्होंने बड़े ही सुनियोजित तरीके से सोवियत संघ के ख़िलाफ़ झूठा प्रचार करना शुरू कर दिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के कुख्यात भाषण में उन्होंने सोवियत संघ पर यूरोप में “आयरन कर्टन” (लोहे का पर्दा) खींचने का आरोप लगाया था। युद्ध के बाद के वर्षों में, अमरीकी साम्राज्यवाद ने नाटो, सीयेटो और सेंटो जैसे खुले तौर पर सोवियत-विरोधी और कम्युनिस्ट-विरोधी सैन्य गठबंधनों को गठित किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने खुद अपने देश में कम्युनिस्टों और प्रगतिशील लोगों का उत्पीड़न करने के लिए उनपर झूठे आरोप और हमलों का माहौल तैयार किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त हुए कई नए स्वतंत्र देशों में प्रतिक्रियावादी, कम्युनिस्ट-विरोधी ताक़तों को बढ़ावा देने के प्रयास किये। यहां तक कि उन्होंने लोकप्रिय और प्रगतिशील सरकारों का जैसे कि ग्रीस, फिलीपींस, ईरान और विशेष रूप से लैटिन अमरीका में, खूनी तख़्तापट आयोजित किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सोवियत संघ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अकेला करने और उसपर दबाव डालने के लिए, अपनी और अपने मुख्य सहयोगियों, ब्रिटेन और फ्रांस की वीटो शक्ति का इस्तेमाल किया। सोवियत संघ और समाजवादी खेमे के ख़िलाफ़ आयोजित इस हमलावर अभियान को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता था।

युद्ध के तुरंत बाद, पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने पूर्वी एशियाई उपनिवेशों पर जिनके लोगों ने जापानी कब्जे़ के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी, वहां अपनी हुकूमत फिर से चलाने की बहुत कोशिशें कीं। जहां कहीं वे सत्ता पर अपनी पकड़ क़ायम नहीं रख सकते थे, वहां उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वे साम्राज्यवादी व्यवस्था से बंधी सरमायदारी शक्तियों को सत्ता सौंप दें, जैसा कि हिन्दोस्तान में हुआ। नए स्वतंत्र राज्यों को कमजोर करने के मक़सद से उन्होंने देशों के बीच नयी सरहदें बनायीं और और देशों का बंटवारा किया। हालांकि, चीन के मामले में वे अपनी योजनाओं में सफल नहीं हो पाए, जहां 1949 में लोगों ने एक सफल क्रांति को अंजाम दिया और जिसके कारण, यह विशाल देश साम्राज्यवादी व्यवस्था से अलग हो गया था। साम्राज्यवादी, पूर्वी यूरोप में भी पोपुलर फ्रंट की सरकारों के गठन को रोकने में असफल रहे।

प्रमुख साम्राज्यवादी महाशक्ति के रूप में अमरीकी साम्राज्यवाद का उदय

कम्युनिस्ट-विरोधी और प्रतिक्रियावादी हमलावर अभियान का सरगना अमरीकी साम्राज्यवाद था, जो द्वितीय विश्व युद्ध से अन्य देशों की तुलना में कम नुकसान के साथ उभर कर सामने आया था और साम्राज्यवादी खेमे का निर्विवाद नेता बन गया था और जो स्थान उसने आज तक क़ायम रखा है।

सैन्य गठबंधनों के अलावा, अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सहयोगियों ने नए स्वतंत्र हुए लेकिन कमजोर राज्यों की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं पर और भी दबाव बनाये रखने के लिए विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) जैसे वित्तीय और अन्य संस्थानों की स्थापना की। उन्होंने इन राज्यों में हुक्मरान अभिजात वर्ग को रिश्वत देने और उन्हें साम्राज्यवाद के खेमे में लाने के लिए “सहायता कूटनीति” (एड डिपलोमेसी) का खेल चलाया। अमरीका विशेष रूप से लैटिन अमरीका को अपनी जागीर समझता है और इन देशों में सबसे प्रतिक्रियावादी शासकों का समर्थन करता आया है। जिन देशों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों का विरोध किया, अमरीका ने उनका तख़्तापलट किया और सीधा फौजी हस्तक्षेप आयोजित किया, जैसे कि चिली और ग्रेनेडा में हुआ। जब 1959 में क्यूबा की क्रांतिकारी ताक़तों ने बतिस्ता नामक अमरीकी चमचे को उखाड़ फेंका तो अमरीका ने इस क्रांति को निस्तोनाबूद करने की हर संभव कोशिश की लेकिन उसको सफलता नहीं मिली।

समाजवादी राज्यों और आंदोलनों को सताने और उनको धमकी देने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद ने सीधे फौजी दख़लंदाज़ी का भी सहारा लिया और इसकी शुरुआत 1950 में कोरिया पर हमले के साथ हुई। वियतनाम में जब कम्युनिस्टों के नेतृत्व में राष्ट्र मुक्ति आंदोलन की शक्तियों ने फ्रांसीसी बस्तीवादी शासकों को हराया, तो अमरीकी साम्राज्यवाद ने सीधे दख़लंदाज़ी कर देश का बंटवारा किया और वियतनाम के दक्षिणी हिस्से में एक कठपुतली सरकार स्थापित की। यह स्थिति तब तक बनी रही जब 1975 में वियतनामी लोगों के बहादुर संघर्षों से उसे पराजित नहीं कर दिया गया। इस युद्ध के दौरान वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के लोगों के ख़िलाफ़ अमरीका द्वारा किए गए बर्बर अत्याचारों में, रासायनिक और जैविक हथियारों का प्रयोग करना भी शामिल है, जिसके भयानक परिणाम हुए।

रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण और ऊर्जा-संपन्न पश्चिम एशिया-फारस की खाड़ी क्षेत्र में, अमरीका ने अरब राष्ट्रवाद पर हमला करने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित किये गए जाऊनवादी इज़रायली राज्य का अपने मुख्य हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। उसने अरब लोगों में फूट डालने और इस क्षेत्र के विशाल तेल भंडारों पर अपना नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए अनेक प्रतिक्रियावादी अरब शासकों को रिश्वत देकर सीधे तौर पर खरीद लिया। 1953 में ईरान में राष्ट्रवादी सरकार को उखाड़ फेंकने और अपने चमचे, फासीवादी शाह को सत्ता में बैठाने में अमरीकी साम्राज्यवादियों को इस्राईल से मदद मिली। 1979 में ईरान में हुई क्रांति ने जब शाह को उखाड़ फेंका, तो अमरीका ने वहां की क्रांतिकारी सरकार पर, “इस्लामी कट्टरपंथी” के नाम से हमला करते हुए, क्रांतिकारी सरकार को बदनाम और कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

सोवियत संघ में पूंजीवाद के पुनः स्थापित होने के बाद, 60 के दशक में एक सामाजिक साम्राज्यवादी देश में तब्दील हो गया। जबकि पहले वह क्रांति व राष्ट्रों के मुक्ति संघर्षों का एक गढ़ था जो राष्ट्रों के अधिकारों और शांति का रक्षक था। बाज़ारों व प्रभाव क्षेत्रों के मामलों में उसने अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ समझौता व टकराव शुरू कर दिया। अपने साम्राज्यवादी कार्यवाइयों के लिये वह समाजवादी नारों का इस्तेमाल करता था। सोवियत संघ ने 1968 में चेकोस्लावाकिया पर कब्ज़ा जमाया और 1978 में अफग़ानिस्तान पर। अमरीकी सैन्य गठबंधन से टकराव में उसने वारसाॅ संधि जो अन्य देशों के साथ उसका सैन्य गठबंधन था। दोनों महाशक्तियों ने अपने आपको जन-विनाश के सबसे परिष्कृत हथियारों से लैस किया। इनमें शामिल हैं परमाणु बम और जैविक हथियार। नाज़ी जर्मनी को परास्त करने और द्वितीय विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद जिन सिद्धांतों को सभी ने माना था उनका खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन दोनों महाशक्तियों – अमरीका और सोवियत संघ ने किया। दोनों ही दावा करते रहे कि वे दुनिया को बचाने के लिये अपनी कार्यवाइयां कर रहे हैं।

1991 में सोवियत संघ के पतन और विघटन के बाद भी, जिसे शीत युद्ध का औपचारिक अंत माना जाता है, अमरीकी साम्राज्यवाद ने एक-ध्रवीय दुनिया में अपने आपको दुनिया की एकमात्र महाशक्ति रूप में स्थापित करने के लक्ष्य के लिये एकाग्रता से काम किया है। इसके लिये उसने पूर्वी यूरोप के विभिन्न देशों और भूतपूर्व-सोवियत गणराज्यों को रूस के प्रभाव से अलग करके, रूस को कमज़ोर करने की कोशिश जारी रखी है। इस मक़सद को पूरा करने के लिए, उन सभी देशों के ख़िलाफ़ हिंसक हमले आयोजित किए जाते हैं जो उसके आदेश को मानने से इंकार करते हैं। इसके चलते अफग़ानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया, सहित दुनिया के कई देशों को पूरी तरह से बर्बाद किया गया है। कुछ अन्य देशों में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने आर्थिक प्रतिबंधों के रास्ते, उन देशों की आर्थिक व्यवस्था का गला घोंटने का तरीका अपनाया है जिससे वहां के लोगों की ज़िंदगी हराम हो जाये और वे अपने देष की सरकारों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दें। जर्मनी और यूरोपीय संघ जैसे अपने सहयोगी और मित्र देशों के ख़िलाफ़ भी अमरीका ने दबाव बनाने और उन्हें कमजोर करने के लिए अनके प्रकार की साजिशें आयोजित की हैं और यह सुनिश्चित किया है कि वे किसी भी तरह से उसके वर्चस्व को चुनौती न दे सकें।

हाल के वर्षों में अमरीकी साम्राज्यवाद, एकमात्र महाशक्ति के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रखने के रास्ते पर में तेज़ी से विकास कर रहे चीन को एक मुख्य ख़तरे के रूप में देख रहा है। इसलिए अमरीका ने चीन के ख़िलाफ़ उकसावे की कई कार्यवाहियां आयोजित की हैं। जिसमें दक्षिण-चीन सागर में अपने युद्धपोतों को भेजना, अमरीका और चीन के बीच व्यापार युद्ध शुरू करना, हांगकांग और ताइवान में चीन-विरोधी ताक़तों के लिए अपना समर्थन बढ़ाना और विदेशों में चीनी कंपनियों को बहिष्कार का निशाना बनाना शामिल है। इस समय कोरोनावायरस महामारी की स्थिति में अमरीका ने चीन पर बिना किसी सबूत के, जानबूझकर वायरस को फैलाने का आरोप लगाया है और चीन के ख़िलाफ़ हिन्दोस्तान सहित अनेक राज्यों का गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है।

दुनिया में अपने वर्चस्व को बनाए रखने और उसका विस्तार करने के लिए, अमरीकी साम्राज्यवाद की आक्रामक कोशिश ही दुनिया में बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों का मुख्य कारण है और एक नए विश्व युद्ध के ख़तरे का प्रमुख कारक है। जब पिछले विश्व युद्ध के दर्दनाक, दिल दहलाने वाले नतीजों को याद किया जा रहा है, तो यह समझना बेहद ज़रूरी है कि इससे भी बड़ी तबाही का ख़तरा पूरी मानव जाति पर मंडरा रहा है। यह ख़तरा तब तक मंडराता रहेगा जब तक कि अमरीकी साम्राज्यवाद की अगुवाई में चल रही, साम्राज्यवादी आक्रामकता को रोका नहीं जाता।

लेख के 6 भागों में से अगला भाग–छह पढ़ें : द्वितीय विश्व युद्ध के सबक

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