जब देशभर के कोयला मज़दूर 41 कोयला खदानों को निजी कंपनियों द्वारा कोयले के व्यावसायिक खनन के लिए नीलामी किये जाने के ख़िलाफ़ हड़ताल और अन्य तरह से विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं, सरकार के प्रवक्ता इस कदम को जायज़ ठहराने के लिए इस तरह के तथाकथित तर्क पेश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया है कि उनकी सरकार “दशकों से बेड़ियों में बंद कोयला क्षेत्र को आज़ाद कर रही है”। उन्होंने यह भी ऐलान किया है कि उनके इस कदम से हिन्दोस्तान दुनिया में कोयले का एक प्रमुख निर्यातक बन जायेगा। नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत ने आरोप लगाया कि 1972-73 में कोयला क्षेत्र को राजकीय इजारेदारी में लाये जाने की वजह से “हिन्दोस्तान दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा कोयला आयातक देश बन गया, जबकि दुनिया में कोयले के सबसे बड़े भडारों में से एक उसके पास हैं”।
इस समय दुनिया में चीन, हिन्दोस्तान, जापान और दक्षिण कोरिया सबसे बड़े कोयला आयातक देश हैं, तो ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, संयुक्त राज्य अमरीका और दक्षिण अफ्रीका सबसे बड़े निर्यातक देश हैं। आज दुनिया भर में कोयले की जगह पर नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों का इस्तेमाल करने का प्रचलन है। यह कोयला खनन से पर्यावरण पर हो रहे दुष्परिणाम के बारे में लोगों में गहरी चिंता का नतीजा है। इसके अलावा, अन्य कई देशों की तुलना में हिन्दोस्तान का कोयला निचले दर्जे का माना जाता है। इस वजह से हिन्दोस्तान का दुनियाभर में कोयले का एक प्रमुख निर्यातक बनना संभव नहीं है।
2003-04 में हिन्दोस्तान अपनी कुल जरूरत का 6.5 प्रतिशत से भी कम कोयले का आयात करता था। लेकिन 2018-19 में यह 25 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इस वर्ष कोयले का कुल आयात 235 एम.टी. (मिलियन मेट्रिक टन) था जिसमें 52 एम.टी. कोकिंग कोयला और 183 एम.टी. नॉन-कोकिंग कोयला था। कोकिंग कोयले को स्टील प्लांट में इस्तेमाल किया जाता है जबकि नॉन-कोकिंग कोयले का इस्तेमाल कोयला-आधारित थर्मल पॉवर प्लांट और सीमेंट, खाद, और एल्युमीनियम उद्योगों में किया जाता है।
कोयले के आयात में तेजी से बढ़ोतरी, निजीकरण और उदारीकरण के रास्ते भूमंडलीकरण के कार्यक्रम का नतीजा है। 1993-94 में कोयले को ओपन जनरल लाइसेंस के तहत लाया गया, जिसका मतलब यह है कि कोई भी निजी कंपनी सरकार से इजाजत के लिए आवेदन के बगैर ही कोयले का आयात कर सकती है। दुनिया के बाज़ार में जब कोयले की कीमत गिर रही थी उस समय निजी कंपनियों को ऑस्ट्रेलिया या इंडोनेशिया से आयात कोयले का उपयोग करना सस्ता पड़ रहा था। कई नए औद्योगिक उपक्रम आयातित कोयले के उपयोग के लिए डिज़ाईन किये गए। समुद्र के तट के पास कोयला-आधारित पॉवर प्लांट लगाये गए, जो कि देश के भीतर खनिज भंडारों से काफी दूर थे।
इस दौरान कोयले के आयात में बढ़ोतरी के दूसरी वजह यह थी कि कोल इंडिया को कोयले की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए उत्पादन को बढ़ाने की सरकार ने इजाजत नहीं दी। और साथ ही केंद्र सरकार ने कोयले के उत्पादन के लिए जरूरी रेलवे लाइन और अन्य ढांचागत सुविधाओं के विकास करने के लिए निवेश नहीं किया। इसके अलावा प्रदूषण कानून के उल्लंघन और पर्यावरण क्लीयरेंस के अभाव की वजह से नयी खदानों को विकसित नहीं किया जा सका। कोयला मंत्रालय द्वारा 2013 में प्रकाशित एक पेपर में इन कारणों को स्वीकार किया गया है।
न तो प्रधानमंत्री और न ही नीति आयोग के प्रमुख ने इस बात को समझाया है कि राज्य की स्वामित्व वाली कंपनियों की तुलना में निजी कंपनियां किस तरह कोयले का उत्पादन बेहतर तरीके से बढ़ा पायेगी। निजीकरण करने से देश में मौजूद कोयले के भंडारों की गुणवत्ता में कोई बदलाव नहीं होने वाला है। पर्यावरण संबंधी चिंताएं भी कुछ गायब नहीं हो जांएगी। जब कभी दुनिया के बाज़ारों में कोयले की कीमत कम होगी, कोयले का इस्तेमाल करने वाली निजी कंपनियां कोयले का आयात जारी रखेगी।
हकीकत तो यह है कि उर्जा के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता सुनिश्चित करना सरकार की नीति का उद्देश्य नहीं रहा है। सरकार की नीति का हमेशा एक ही उद्देश्य रहा है, इजारेदार पूंजीपतियों की लालच को पूरा करना।
2004 और 2009 के बीच कांग्रेस-नीत सरकार ने निजी कंपनियों को अपनी कोयले की अंदरूनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयला खदानों का आवंटन किया। उस समय की विपक्ष की पार्टियों ने सरकार पर इल्ज़ाम लगाया कि इस आवंटन को मनमर्जी से लागू किया गया है, और इसमें भ्रष्टाचार हुआ है, इसके साथ ही सार्वजनिक निधि को भारी नुकसान हुआ है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आवंटन को रद्द कर दिया। अब व्यवसायिक खनन पर राज्य की इजारेदारी स्थापित करने वाले कानूनों को रद्द करते हुए, और निजी कंपनियों को कोयले का उत्पादन करने और अपनी मर्जी से बेचने की अनुमति देते हुए भा.ज.पा-नीत सरकार निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ रही है।
2004-2009 के बीच जिन पूंजीपतियों को कोयला खनन के लिए लाइसेंस दिए गए थे, उनमें से अधिकांश कंपनियों का कोयला उत्पादन करने का कोई इरादा नहीं था। उनका इरादा था इन खनिज संसाधनों को अपने कब्ज़े में लेना और बाद में अपने लाइसेंस को अप्रत्याशित मुनाफों पर बेचना।
सरकार द्वारा की जा रही नीलामी की प्रक्रिया किसी भी मायने में पहल से कम भ्रष्ट होगी, ऐसी उम्मीद की कोई वजह नहीं है। जो इजारेदार कंपनियां खदानों की नीलामी में हिस्सा लेंगी वह अपना एक कार्टेल बना लेंगी और जिनता संभव हो सके कम दाम पर इन खदानों को अपने कब्जे में कर लेंगी। अपने प्रतिद्वंदियों को हराने के लिए वह राज्य के अधिकारियों और मंत्रियों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेगी। भविष्य में यह कोयला कार्टेल राज्य पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए कोल इंडिया को सुनियोजित तरीके से कमजोर बनाएगी जिससे यह कंपनियां घरेलू बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ा सकें। कोयले का कितना उत्पादन किया जायेगा यह अधिकतम मुनाफे बनाने के मकसद से तय होगा और न की आयात पर निर्भरता कम करने की जरूरत के आधार पर।
सरकार के इस कदम को जायज़ साबित करने के लिए नीति आयोग के प्रमुख ने यह तर्क दिया है कि इससे लाखों नई नौकरियां पैदा होंगी। ऐसा कहते हुए इस बात को छुपाया जा रहा है कि निजी कंपनियों द्वारा कोयले के उत्पादन में विस्तार की कीमत कोल इंडिया को अदा करनी पड़ेगी जिसे अपना उत्पादन कम करना होगा। नयी नौकरियां मौजूदा नौकरियों को बर्बाद करके पैदा की जाएगी। और इन नौकरियों के लिए मज़दूरों को आज की तुलना में कम वेतन पर रखा जायेगा, और रोज़गार की बदतर शर्तों पर काम करने के लिए मजबूर किया जायेगा।
तीसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि जिन राज्यों में यह खदाने स्थित है, उन राज्यों को कोयले पर रॉयल्टी से अधिक राजस्व की कमाई होगी। ऐसा दावा किया जा रहा है कि रॉयल्टी के अलावा केंद्र सरकार रेल के ढांचे को बेहतर बनाने के लिए निवेश करेगी, जिससे खदान वाले इलाकों में विकास होगा। यह तर्क देते हुए इस बात को छुपाया जा रहा है कि राज्य सरकारों को कोयले पर कितनी रॉयल्टी मिलेगी इसका फैसला भी केंद्र सरकार करेगी। केंद्र सरकार द्वारा रॉयल्टी की दर को बढ़ाने की संभावना बहुत कम है क्योंकि इससे निजी कंपनियों द्वारा उत्पादित कोयले की कीमत बढ़ जाएगी, और वह विदेशी कंपनियों से होड़ नहीं कर पाएंगी।
जब खदानों का स्वामित्व राज्य के हाथों में होता है तो कोयले के उत्पादन से निर्मित मूल्य पर केवल दो दावेदार होते हैं। एक दावेदार मज़दूर है और दूसरा राज्य। निजी स्वामित्व के मामले में एक तीसरा दावेदार आ जाता है, यानि खदानों का निजी मालिक, जो अपने लिए अधिकतम मुनाफे बनाना चाहता है। इसलिए असलियत में निजीकरण से खदानों के इलाकों के विकास के लिए संसाधनों में बढ़ोतरी नहीं बल्कि कमी आ जाएगी।
केंद्रीय बजट से ढांचागत सुविधाओं के लिए अधिक धन लगाये जाने के वायदा का खदान इलाकों में रहने वाले लोगों के कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है। इसका असली मकसद है निजी कंपनियों को अधिकतम मुनाफे बनाने में सहायता करना।
एक और तर्क जिसका बहुत प्रचार किया जा रहा है कि कोयला क्षेत्र को विदेशी निवेशकों के लिए खोलने से वह तथाकथित रूप से हमारे देश में खनन की सबसे आधुनिक अंतराष्ट्रीय टेक्नोलॉजी ले आयेंगे। असलियत तो यह है कि सबसे आधुनिक टेक्नोलॉजी में विकास का मकसद पर्यावरण को हो रहे नुकसान को कम करना और खदान मज़दूरों की सुरक्षा को बेहतर करना है। लेकिन इसमें बड़े पैमाने पर अतिरिक्त निवेश की जरुरत होती है। और एक मुनाफे की लालची निजी कंपनी ऐसी टेक्नोलॉजी को अपनाएगी इसकी संभावना राज्य की स्वामित्व की कंपनी की तुलना में बहुत कम है।
यदि देश के खनन क्षेत्र को सबसे आधुनिक अंतराष्ट्रीय टेक्नोलॉजी का फायदा उठाना है तो केंद्रीय सरकार को इसे टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर के जरिए हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे कोल इंडिया की खदानों को आधुनिक बनाया जा सके। लेकिन सरकार की ऐसी कोई भी योजना नज़र नहीं आ रही है।
कुल मिलकर देखा जाए तो कोयले के निजीकरण के पक्ष में जो तर्क पेश किये जा रहे हैं वह केवल झूठा प्रचार है, ताकि उसके असली मकसद को छुपाया जा सके। उनका असली मकसद है कोल इंडिया के बदले निजी पूंजीपति कंपनियों को मुनाफे बनाने में सहायता करना।
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रीसेंट ट्रेंड्स इन प्रोडक्शन एंड इम्पोर्ट ऑफ कोल इन इंडिया. कोयला मंत्रालय, ओकेश्नल वर्किंग पेपर सीरीज क्र. 1/13 अक्टूबर 2013 (https://coal.nic.in/sites/upload_files/coal/files/coalupload/wp101014.pdf)