केंद्र सरकार के किसान विरोधी अध्यादेशों पर अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के कार्यकारी अध्यक्ष से साक्षात्कार

हाल में केन्द्र सरकार द्वारा पारित कृषि क्षेत्र से संबंधित अध्यादेशों के बारे में मज़दूर एकता लहर ने अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के कार्यकारी अध्यक्ष डा. सुनीलम के साथ बातचीत की। साक्षात्कार में की गयी मुख्य बातें यहां पेश की जा रही हैं।

म.ए.ल. : जून महीने के आरम्भ में सरकार ने कृषि व्यापार संबंधी जो अध्यादेश पारित किया, उसके अनुसार, अंतर-राज्यीय कृषि व्यापार की रुकावटें हटा दी जायेंगी। क्या इससे किसानों को अपने उत्पादन का सही दाम मिलेगा?

डा. सुनीलम : असल में यह अध्यादेश किसानों की आज़ादी का रास्ता नहीं है, बल्कि यह पूरा कारपोरेट लूट का रास्ता है। पारित अध्यादेश से लग रहा है कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या बाज़ार की है। जबकि किसानों की सबसे बड़ी समस्या पूरा दाम और कर्ज़ मुक्ति की है। अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति यही मानती है।

मेरे मध्यप्रदेश में मुलताई के किसान की हालत देश के किसानों की हालत से अलग नहीं है। 85 प्रतिशत किसान एक हेक्टेयर से कम की भूमि रखने वाले हैं। उनके पास इतना ही होता है कि वे अपने घर में खाने का काम चला सकें। वे थोड़ा बहुत ही बाज़ार में बेचने के लिए लेकर जाते हैं। केरल या तमिलनाडु में जाकर अपनी फसल बेचना उनके लिये संभव नहीं है। कुल मिलाकर जिन रुकावटों को दूर करने की बात सरकार कर रही है, वे सिर्फ व्यापारियों के लिए हैं। व्यापारी मंडी से खरीदेगा और बेचेगा कहीं और। किसानों का उत्पाद उनके हाथों में चला जाएगा। किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है। इस अध्यादेश से कारपोरेटों को ही लाभ होगा।

म.ए.ल. : दूसरे अध्यादेश के जरिये, कृषि व्यापार, खाद्य प्रसंस्करण और निर्यात की बड़ी-बड़ी कंपनियों को देशभर में किसानों के साथ फ़सल बोने से पहले ही उत्पाद की खरीदी के लिए कान्ट्रैक्ट बनाने की और ज्यादा छूट दी जाएगी। क्या कान्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों को फायदा होगा?

डा. सुनीलम : कान्ट्रैक्ट फार्मिंग का मतलब है – समझौता पर खेती। ऐसा आज भी चल रहा है। बटाई पर खेती होती है। तकनीकी तौर पर बटाई की खेती ही ठेका की खेती है। लेकिन अब यह ठेका कंपनी के साथ होगा। अब कंपनी द्वारा तय किया गया उत्पाद को देना होगा। कंपनी बीज व अन्य लागत देगी और खेत पर पूरा नियंत्रण रखेगी। जैसा कि पंजाब के अंदर हुआ। पेप्सी ने टमाटर उत्पादन के लिए बीज दिये और लोगों ने टमाटर पैदा किये। उन्हें पहले 5 रुपये का दाम दिया फिर 3 रुपये कर दिया। किसानों को टमाटर सड़ाना पड़ा। अगर किसान ने कंपनी द्वारा निश्चित आकार, रंग और गुणवत्ता वाला उत्पादन नहीं दिया तो इसे किसान द्वारा समझौते को तोड़ना माना जाएगा। मतलब किसान को इसका मुआवजा देना होगा। कुल मिलाकर, किसान की ज़मीन कंपनी की हो जाएगी।

जो छोटे और मंझोले किसान हैं उनकी ज़मीन को हड़पने के लिए ही यह ठेका कानून है। साधारण शब्दों में यह जमीन-हड़प कानून है। इसलिए हम इस कानून का विरोध कर रहे हैं।

आप खुद ही सोचिए कि किसान एक छोटा-मोटा केस तो लड़ नहीं पाता, इन कंपनियों से कहां लड़ेगा। किसान की फ़सल खरीदने वाली कंपनी का मालिक अरबों-खरबों का होगा। उसकी कमाई कई देशों के जी.डी.पी. के बराबर होगी। उसकी ताक़त के आगे किसान की क्या ताक़त है। कृषि क्षेत्र में पहले ही 10-20 विशाल कंपनियां मौजूद हैं। भारत के किसान की ज़मीन पर अमरीका और यूरोप के कारपोरेटों की नज़र है। ठेका खेती के समर्थक कारपोरेट लोगों का कहना है कि आपको गेहूं और चावल अमरीका से पैदा करके देंगे। लेकिन आप वही पैदा करो, जो हम चाहते हैं। आज फिर से पूरे देश को नील की खेती में तब्दील करने की साज़िश है। जिस तरीके से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी आई थी, उसने एक के बाद एक ज़मीन और फिर पूरे देश को हाथिया लिया था। उसको भगाने के लिए 250 साल तक लड़ना पड़ा।

म.ए.ल. : मध्य प्रदेश में किसानों को अपने उत्पादों को बेचने में किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

डा. सुनीलम : कृषि व्यापार अध्यादेश मंडी व्यवस्था को ख़त्म करना चाहता है। यह बिल्कुल सही है कि मंडी व्यवस्था के अंदर कुछ कमजोरियां हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। आप ऐसा नहीं कर सकते कि मरम्मत मांगने वाले मकान को ही ध्वस्त कर दें। सरकार पूरी मंडी व्यवस्था, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म करना चाहती है। वे कहेंगे कि मंडी के अंदर बेचने की ज़रूरत नहीं है, अब गांव-गांव जाकर खरीद होगी।

मंडी व्यवस्था में देश का 6 प्रतिशत ही उत्पादन आता है। लेकिन कम से कम कुछ लोगों को तो न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है।

मध्यप्रदेश में मंडी व्यवस्था लागू है। मध्यप्रदेश में कोरोना काल में हमारे मुख्यमंत्री ने कहा कि आपको मंडी आने की ज़रूरत नहीं है। खेत में ही खरीद हो जाएगी। आपका गेहूं 2100 रुपये क्विंटल खरीदा जायेगा। लेकिन खरीदा कुछ नहीं गया। आज की स्थिति में मंडियों में भी 1500-1600 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं बिक रहा है।

मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं कि पहले बिहार में मंडी व्यवस्था थी। उसको ख़तम किया गया तो आज वहां की स्थिति यह है कि मक्का का समर्थन मूल्य 1760 या 1825 रुपये प्रति क्विंटल है, जो कि बिहार में 700-800 रुपये प्रति क्विंटल पर बिक रहा है। जबकि हमारे मध्यप्रदेश में समर्थन दाम पर बिक रहा है। मेरे कहने का मतलब यह है कि मंडी व्यवस्था को ख़तम करने से न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था ख़तम हो जाएगी। भारतीय खाद्य निगम ख़तम हो जाएगा। राशन वितरण व्यवस्था ख़तम हो जाएगी। यानी राशन पर निर्भर लोगों के जीवन को संकट में डाल दिया जाएगा। हमारा मानना है कि हर एक व्यक्ति को जितने भोजन की ज़रूरत है उतना उसे राशन से मिलना चाहिए। लेकिन सरकार इस वितरण व्यवस्था को पूरी तरह से ख़तम करना चाहती है।

सरकार का कहना है कि हम अभी मंडी खतम नहीं कर रहे हैं। लेकिन मंडी के बाहर फ़सल खरीद होगी तो मंडियां खुद ब खुद घाटे में जाएंगी। अभी तक मंडियों में कुछ टैक्स लगता था, किसान टैक्स देता था। उससे सड़क और विकास का काम होता था। अब किसान को लगेगा कि हमें टैक्स नहीं देना पड़ेगा, वह बाहर बेचेगा। संभव है कि कारपोरेट बिजनेस कंपनियां पहले साल दो साल किसान को ज्यादा मूल्य देंगी। बाद में उसे गिरा देंगी जब बाज़ार पर उनकी इजारेदारी हो जायेगी।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति चाहती है कि मंडी की व्यवस्था और एम.एस.पी. को सुनिश्चित करना चाहिए। देश के कृषि उत्पादों की एम.एस.पी. पर खरीद के लिए स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लागत के डेढ़ गुना दाम पर खरीदी की व्यवस्था को सुनिश्चित करना चाहिए।

म.ए.ल. : आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन से बड़े-बड़े व्यापरियों को इन आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी और सट्टेबाजी करने और मुनाफ़ा बनाने का और ज्यादा मौका मिलेगा। ऐसे में क्या किसानों को सही दाम मिलेगा?

डा. सुनीलम : यह संशोधन व्यापारियों को जमाखोरी करके लूट करने की छूट देता है। जब बाज़ार में रेट कम है तो ये खरीदेंगे। बाज़ार पर इजारेदारी क़ायम करेंगे। जब चाहेंगे, तब बेचेंगे। टमाटर का उदाहरण देता हूं। मैंने कोरोना काल के दौरान ग्वालियर शहर में 25 रुपये किलो टमाटर खरीदा। उसी दिन एक किसान साथी ने बताया कि किसान 10 रुपये किलो टमाटर बेच रहा था। किसानों का माल कंपनियां उठा लेंगी और जमाखोरी करेंगी और उसकी कालाबाज़ारी करेंगी। यह जमाखोरी को कानूनी आधार देने वाला संशोधन है। जमाखोर को संरक्षण देने का काम केन्द्र सरकार कर रही है।

म.ए.ल. : मध्य प्रदेश में किसानों के सामने क्या-क्या समस्याएं हैं?

डा. सुनीलम : बात मध्यप्रदेश के किसानों की ही नहीं है। राष्ट्रीय तौर पर किसानों की समस्याओं को किसी भी सरकार ने गंभीरतापूर्वक नहीं लिया है। वह चाहे संप्रग की सरकार हो या राजग की सरकार हो। इन सरकारों की समझ है कि विकास के लिए किसान और किसानी को ख़तम करना ज़रूरी है। हमारी सरकारों के विकास का मॉडल पूंजी आधारित अमरीका और यूरोप के विकास का मॉडल है। ये सरकारें इसी मॉडल को लागू करने की कोशिश कर रही हैं।

आपने देखा है कि 10 साल पहले जब बिजली का निजीकरण हुआ था, तब बिजली 1 रुपए यूनिट मिलती थी, अभी 5 से 7 रुपये यूनिट मिल रही है।

आज मध्यप्रदेश में 17 जिलों में सूखे की स्थिति बन रही है। अन्य कई राज्यों में बाढ़ के हालात हैं। प्राकृतिक आपदाओं से किसानों का जो नुकसान होता है, उसका तो मुआवज़ा ही नहीं मिलता। साथ ही, बीमा कंपनी और बैंक ने मिलकर फसल बीमा के अंदर ऐसे कानून बना रखे हैं, जिसका नुकसान किसानों को उठाना पड़ता है।

दूसरा मसला है एम.एस.पी. पर फ़सलों की खरीद नहीं है। सिर्फ एम.एस.पी. की घोषणा होती है, खरीद नहीं।

तीसरा मसला है दूध का, जिसकी अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ी भूमिका है। किसान का हाथ खर्च दूध से निकलता है। पहले दूध का दाम 35 रुपये लीटर था, आज 17 रुपये लीटर हो गया है। सरकार दूध का पाउडर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से आयात कर रही है, इसलिए यहां दाम गिर गया है।

चैथा मसला है कर्जा मुक्ति का। मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने कहा था कि हम किसानों का 2 लाख का कर्ज़ा माफ़ करेंगे। सरकार भी बन गई। सिर्फ 50 हजार के कर्ज़ सोसाइटियों के माफ़ हुए लेकिन बाकी कर्ज़ माफ़ नहीं हुए।

मध्यप्रदेश में भूमि अधिग्रहण का बहुत बड़ा मसला है। उदाहरण के लिए छिंदवाड़ा में अडानी स्टेट पावर प्रोजेक्ट के खि़लाफ़ हमारा एक बहुत पुराना आन्दोलन चल रहा था। प्रोजेक्ट नहीं हो पाया। भूमि अधिग्रहण कानून के तहत यह प्रोजेक्ट नहीं बना तो ज़मीन वापस मिलनी चाहिए। लेकिन ज़मीन नहीं दी जा रही है। अब नये-नये पावर प्रोजेक्ट खुल रहे हैं। मध्यप्रदेश की सरकार कुल 21 हजार मेगावाट का पावर प्रोजेक्ट की अनुमति दे रही है, जबकि कुल मांग सिर्फ 9-10 हजार मेगावाट की है। यही हालत पूरे देशभर की है। सरकार के ज़रिए कारपोरेट जल, जंगल, ज़मीन की लूट कर रहे हैं।

म.ए.ल. : अध्यादेश के खिलाफ़ किसान संगठनों के संयुक्त मंच के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के बारे में बताएं।

डा. सुनीलम : किसानों, किसानी और गांवों को बचाएं। किसान कर्ज़ा मुक्त हो। उसकी फ़सल का पूरा दाम व मुआवजा मिले। बिजली बिल माफ़ी और डीजल के दाम आधे हों। भूमि अधिग्रहण पर रोक लगे। यही हमारी मांगें हैं जिन्हें हमने 9 मांगों में रखा है। हमारी मांग है कि तीनों अध्यादेश, जो मंडी व्यवस्था को ख़त्म करेगा, वापस लिया जाना चाहिए। इन सबके खि़लाफ़ 9 अगस्त, 2020 को ‘कारपोरेट भगाओ और किसानी बचाओ’ के नारे के साथ, सर्व हिन्द विरोध प्रदर्शन के लिए 250 किसान संगठनों ने आह्वान किया है।

देश में आजादी के बाद पहली बार इतने सारे किसान संगठन एकजुट हुये हैं। यह एकजुटता, मंदसौर गोलीकांड के बाद शुरू हुई। 9 अगस्त को किसान और श्रमिक संगठन मिलकर सड़क पर उतरेंगे। किसान संगठन विरोध कर रहे होंगे तो श्रमिक संगठन गिरफ्तारियां दे रहे होंगे। यानी एक व्यापाक एकजुटता बनती दिख रही है।

देशभर के सभी किसान संगठनों के साथ हम लोग 9 अगस्त को पूरे देश में आंदोलन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री और राज्य सरकारों को किसानों की समस्याओं को हल करने की मांग को लेकर ज्ञापन देंगे।

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