इजारेदार पूंजीवाद के पड़ाव पर बैंकों की भूमिका पर लेनिन की सीख

हाल ही में कुछ सार्वजनिक बैंकों के विलय के बाद से हमारे देश में बैंकिंग पूंजी का बड़े पैमाने पर संकेंद्रीकरण देखा गया है। इस संदर्भ में पूंजीवाद के साम्राज्यवादी पड़ाव में बैंकों की भूमिका पर लेनिन की सीखों को याद करना बेहद उपयोगी है।

लेनिन का शोधग्रंथ “साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था” हमें बताता है कि जब बैंक इजारेदार में परिवर्तित हुए थे उस समय उनकी भूमिका किस तरह से बदल रही थी।

बैंक का प्रमुख कार्य है भुगतान की प्रक्रिया में बिचैलिए का काम करना। बैंक विभिन्न स्रोतों से धन इकट्ठा करते हैं और उसे पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगाते हैं। ऐसा करते हुए बैंक निष्क्रिय मुद्रा-पूंजी को मुनाफ़े बनाने वाली पूंजी में परिवर्तित करते हैं।

20वीं सदी के अंत तक दुनिया के प्रमुख पूंजीवादी देशों में उद्योग और यातायात के क्षेत्रों में इजारेदारी के विकास के साथ-साथ बैंक भी एक साधारण बिचैलिए से आगे बढ़ते हुए ताक़तवर इजारेदार में बदल गए। लेनिन लिखते हैं कि :

इन बैंकों के हाथों में किसी एक देश तथा कई दूसरे देशों के सभी पूंजीपतियों सहित छोटी मिल्कियतों की लगभग समस्त मुद्रा-पूंजी और उत्पादन के साधनों तथा कच्चे माल के स्रोतों का अधिकांश भाग होता है

लेनिन आगे बताते हैं कि :

अनेक छोटे-छोटे बिचैलियों का मुट्ठीभर इजारेदारों में परिवर्तित हो जाना पूंजीवाद से विकसित होकर पूंजीवादी साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेने की एक मूलभूत प्रक्रिया है।

सौ वर्ष पहले जब लेनिन ने इस प्रक्रिया का विश्लेषण किया था उस समय से लेकर आज तक बैंकों और बीमा जैसी वित्त कंपनियों का दबदबा कई गुना बढ़ गया है।

दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों की सूची में विशाल वित्तीय संस्थानों का दबदबा है (फोब्र्स 2020)। दुनियाभर की सबसे बड़ी 10 में से 8 कंपनियां वित्तीय संस्थान हैं। हिन्दोस्तान में पांच सबसे बड़ी कंपनियों में 4 कंपनियों सहित 50 सबसे बड़ी कंपनियों में से 19 वित्तीय संस्थान हैं।

कम से कम बैंकों के पास अधिक से अधिक पूंजी का संकेन्द्रण और बैंकों की वार्षिक कमाई में बेतहाशा बढ़ोतरी की वजह से अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका में भी परिवर्तन आता है। लेनिन ने आगे समझाया है कि :

अलग-अलग बिखरे हुए पूंजीपति एक सामूहिक पूंजीपति का रूप धारण कर लेते हैं। कुछ पूंजीपतियों के चालू खातों का हिसाब रखते हुए बैंक मानो एक शुद्धतः तकनीकी तथा पूर्णतः सहायक कार्य करता है। परन्तु जब यह कारोबार बेहद बढ़ जाता है, तब हम देखते हैं कि मुट्ठीभर इजारेदार पूरे पूंजीवादी समाज के सारे वाणिज्यिक और औद्योगिक कारोबारों को अपनी इच्छा के अधीन कर लेते हैं, क्योंकि – बैंक के अपने कारोबार के संबंधों, अपने चालू खातों और अपनी अन्य वित्तीय कार्यवाहियों के ज़रिये – उन्हें इस बात का मौका मिल जाता है कि पहले तो वे विभिन्न पूंजीपतियों के बारे में ठीक-ठाक पता लगा सकें कि उनकी वित्तीय स्थति क्या है, फिर उन्हें ऋण देना कम करके या बढ़ाकर, ऋण की सुविधा प्रदान करके या उसमें बाधा डालकर, उन पर नियंत्रण रख सकें और अंत में उनके भाग्य को पूरी तरह अपने वश में कर लें, उनकी आय निर्धारित करें, उन्हें पूंजी से वंचित कर दें या उन्हें अपनी पूंजी बड़ी तेज़ी से तथा बेहद बढ़ा लेने दें, आदि।

बैंकों के इजारेदार बन जाने की वजह से उनकी भूमिका में आया परिवर्तन, यह स्पष्ट करता है कि बैंकों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए पूंजीपति वर्ग के बीच भयंकर संघर्ष होता है। जिन पूंजीपति समूहों का बैंकों पर नियंत्रण होता है उन समूहों को इस नियंत्रण के चलते अपना धन बेतहाशा बढ़ाने की संभावना होती है और साथ ही अपने प्रतिस्पर्धी समूहों की बढ़त को रोकने की भी संभावना होती है।

बैंकों की इस नई भूमिका में बैंकों और उद्योगों के बीच घनिष्ठ संबंध इसकी सबसे बड़ी खासियत होती है। किसी कंपनी का बैंक में चालू खाता होने की वजह से उस बैंक को कंपनी की आर्थिक स्थिति के बारे में अधिक जानकारी हासिल करना आसान बनाता है, तो इसका नतीजा यह होता है कि औद्योगिक पूंजीपति बैंक पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होता चला जाता है।

बैंक और सबसे बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक उद्यमों के बीच “व्यक्तिगत संबंधों” की वजह से औद्योगिक और बैंकिंग पूंजी के तेज़ी से बढ़ रहे विलय के बारे में लेनिन ने बताया है। यह काम एक दूसरे के शेयरों को खरीदने के साथ-साथ कंपनियों के निदेशक बोर्डों में बैंकों के नुमाइंदों को बैठाने, बैंकों के निदेशक बोर्डों में उद्योगपतियों के नुमाइंदों को बैठाने के ज़रिये किया जाता है।

लेनिन ने आगे बताया है कि इस तरह से बैंक और उद्योगों के बीच इस “व्यक्तिगत संबंधों” के साथ इन दोनों और सरकार के बीच “व्यक्तिगत संबंधों” को भी बढ़ाया जाता है। सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारियों को बैंकों और उद्योगों के निदेशक मंडलों में बैठने का न्योता दिया जाता है और उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे सरकार के साथ अपने पुराने संबंधों का उपयोग कंपनी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए करेंगे।

लेनिन ने वित्त पूंजी की व्याख्या इस तरह से की है कि :

उत्पादन का संकेन्द्रण उससे उत्पन्न होने वाली इजारेदारियों, उद्योगों के साथ बैंकों का विलयन या संलयन – यह वित्त पूंजी के उत्थान का इतिहास है और यही इस शब्द का सार है।

जहां तक वित्त क्षेत्र में राज्य की इजारेदारी का सवाल है, इससे स्पष्ट है कि जो वर्ग राज्य पर नियंत्रण करता है वही वर्ग उस धन पर भी नियंत्रण करता है जो कि सरकारी बैंकों, पोस्ट ऑफिसों में बचत इत्यादि के रूप में उनके सुपुर्द किया जाता है।

लेनिन ने आगे बताया है कि:

“…पूंजीवादी समाज में राज्य की इजारेदारी केवल कुछ उद्योग क्षेत्र के करोड़पतियों की आमदनी को बढ़ाने और उसको गारंटी देने का ज़रिया मात्र है, जो दिवालियापन की कगार पर खड़े हैं।

हमारे देश में करीब 50 वर्ष पहले वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीकरण किया गया। बैंकों पर राज्य की इजारेदारी की वजह से टाटा, बिरला और अन्य औद्योगिक घरानों को उनके पूंजीवादी कारोबारों में होने वाले उतार-चढ़ावों के दौरान अधिकतम मुनाफ़ों की गारंटी दी जाती रही। इस सबके दौरान सबसे बड़े निजी और सार्वजनिक वाणिज्यिक बैंकों, सबसे बड़े औद्योगिक और सेवा कंपनियों और उच्चतम स्तर पर सरकारी अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं के बीच व्यक्तिगत संबंध स्थापित किये गए।

पिछले 20-25 वर्षों में इजारेदार पूंजीपतियों के हितों में राज्य की इजारेदारी को धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया और निजी इजारेदार बैंकों को बढ़ावा दिया गया। अब सार्वजनिक बैंकों का विलय करके बैंक की पूंजी को और अधिक संकेंद्रित किया जा रहा है। अब इन बैंकों के और अधिक विलय और निजीकरण के रास्ते पूंजी के संकेन्द्रण को और अधिक उंचाइयों तक ले जाने की योजना है।

उत्पादन और विनियम के साधनों पर नियंत्रण को चंद मुट्ठीभर अरबपतियों के हाथों में संकेंद्रित किया जा रहा है। हमारे देश में 135 करोड़ लोगों की किस्मत को मुनाफ़े के चंद लालची अरबपतियों के हाथों में दिया जा रहा है जो दुनिया के सबसे बड़े अमीरों के क्लब में शामिल होने की होड़ में लगे हुए हैं।

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