राष्ट्रीय जल नीति 2012 : राज्य ने अपनी जिम्मेदारी त्यागी

केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय जल नीति 2012 का मसौदा तैयार किया है। इस नीति का उद्देश्य इसकी प्रस्तावना में बताया गया है ''मौजूदा हालातों को ध्यान में रखने के लिये और कानून व संस्थानों की एक अतिमहत्वपूर्ण व्यवस्था बनाने के एक ढांचे का प्रस्ताव रखने के लिये तथा देश के स्तर पर समग्र कार्यों की एक योजना के लिये।'' इन बड़े-बड़े शब्दों के माध्यम से असली मंशा को छुपाने की

केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय जल नीति 2012 का मसौदा तैयार किया है। इस नीति का उद्देश्य इसकी प्रस्तावना में बताया गया है ''मौजूदा हालातों को ध्यान में रखने के लिये और कानून व संस्थानों की एक अतिमहत्वपूर्ण व्यवस्था बनाने के एक ढांचे का प्रस्ताव रखने के लिये तथा देश के स्तर पर समग्र कार्यों की एक योजना के लिये।'' इन बड़े-बड़े शब्दों के माध्यम से असली मंशा को छुपाने की कोशिश की गयी है।

असली हालात किसी से छुपे नहीं हैं। इस आधारभूत संसाधन की कमी से लोग बेहद परेशान हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ जल पाने वाले परिवार आबादी का सिर्फ 18 प्रतिशत हैं और शहरी इलाकों में ये 62 प्रतिशत हैं।  देश के करीब एक लाख गांवों में पानी का कोई ''स्रोत'' ही नहीं है।

ग्रामीण इलाकों में करीब 7 करोड़ परिवारों और शहरों में 93 लाख परिवारों – यानि कि करीब 38 करोड़ लोग हैंड पम्प के पानी पर निर्भर हैं जिससे जल से फैलने वाली बीमारियों का खतरा होता है। पेय जल के लिये किसान महिलाओं को मीलों दूर जाना पड़ता है और शहरों की बस्तियों व मज़दूर वर्ग कॉलोनियों में रहने वाले लोगों को अपनी न्यूनतम जरूरतों के लिये सार्वजनिक नलों से पानी भरने के लिये घंटों-घंटों लाइनों में लगा रहना पड़ता है। गांवों और शहरों की अधिकांश आबादी को, एक स्वस्थ्य मानव जीवन के लिये जरूरी, पेयजल की कमी की गंभीर परिस्थिति सहनी पड़ रही है।

इस संदर्भ में, पूंजीपति और उनके प्रसार माध्यम जानबूझ कर ऐसा दिखाते हैं, जैसे कि पेय जल की समस्या का कोई समाधान ही नहीं हो सकता है। वे यह छुपाते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था और उसमें होने वाले अधिकतम मुनाफे का लोभ, इस समस्या के समाधान के रास्ते में बाधा पहुंचाते हैं और उल्टे संकट को और तीव्र करते हैं। जब समाज की चालक शक्ति पूंजी के लिये मुनाफे को अधिकतम करना है, तब, लोगों की जिन्दगी की आवश्यकताओं को पूरा करने को, पर्यावरण के बचाव को या भविष्य की पीढ़ियों की सुनिश्चिति को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। इसकी जगह, निजीकरण और प्राकृतिक संसाधनों पर इजारेदारी कब्ज़ा जमा कर, पूंजीपति जल संकट का इस्तेमाल जबरदस्त मुनाफा बनाने के लिये कर रहे हैं। नीति के मसौदे का प्रमुख निशाना यही है।

नीति के मसौदे में सुझाव रखा गया है कि सरकार को सेवा प्रदान करने की भूमिका से हट जाना चाहिये और इसकी जगह सेवाएं उपलब्ध कराने के लिये समुदाय और/या निजी क्षेत्र की भूमिका को उचित सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पी.पी.पी.) के जरिये बढ़ाना चाहिये। यह जल वितरण व्यवस्था और उसके प्रबंधन का निजीकरण करने का एक कपटी तरीका है। कई राज्य सरकारें इस दिशा में कदम ले चुकी हैं और नीति को मान्यता मिलने से राज्यों को इस दिशा में और आगे बढ़ने का और भी मौका मिलेगा। जल निजीकरण का जबरदस्त विरोध होने के पश्चात अब इस नीति के मसौदे को बहुत ही चालबाजी से बनाया गया है जो पी.पी.पी. की आड़ लेता है!

अभी हाल में दिल्ली सरकार ने शहर के तीन इलाकों की जल आपूर्ति के लिये निजी कंपनियों को निमंत्रण दिया है और इसकी सफाई में दावा किया है कि यह निजीकरण नहीं है बल्कि पी.पी.पी. है, और जल संसाधन जल बोर्ड के पास ही रहेगा। मुख्यमंत्री और दिल्ली जल बोर्ड प्रबंधन, दोनों ने इसकी सफाई में कहा है कि इस कदम से ''पाईपों के जरिये, उपभोक्ताओं को हर वक्त जल मिलेगा'' और ''जल आपूर्ति में साम्यता, भरोसेमंदी और सुरक्षितता में सुधार आयेगा।''

राज्य के द्वारा सभी नागरिकों को भरोसेमंद व सुरक्षित जल आपूर्ति की अपनी जिम्मेदारी त्यागने की यह खुल्लम-खुल्ला कोशिश है। लोगों की जिन्दगी की मूलभूत जरूरत की सुनिश्चिति की जिम्मेदारी से पीछे हटने के लिये राज्य की कड़ी निंदा की जानी चाहिये।

मेहनतकश जनता को पी.पी.पी. के बारे में इस झूठे  प्रचार के बारे में सचेत रहना होगा, कि यह सीधे तौर पर निजीकरण से ''बेहतर'' है। अपने देश में और पूरी दुनिया में इस तरह की भागीदारी के उदाहरणों से साफ दिखता है कि अधिकतम मुनाफों की सुनिश्चिति के लिये यह लोगों द्वारा सार्वजनिक सेवाओं के लिये इजारेदार कीमतें भुगतान कराने का तरीका है जबकि ये सेवायें उन्हें मुफ्त या मामूली सी कीमतों पर मिलनी चाहिये।

नीति मसौदे में एक और हमला किया गया है, कि कृषि और घरेलू क्षेत्र में जल आपूर्ति की सब्सिडी को खत्म किया जाये। इसका मतलब है कि किसानों को सिंचाई के लिये और परिवारों को पेयजल के लिये और खर्चा करना पड़ेगा। सब्सिडी का अंत करना विश्व बैंक के इस नुस्खे के अनुसार है कि जल आपूर्ति का पूरा खर्च उसे इस्तेमाल करने वाले को उठाना चाहिये। इसका असर होगा कि जो पानी के खर्च को सहने में असमर्थ होंगे, उन्हें पानी के इस्तेमाल को कम करना पड़ेगा, जबकि पांच सितारा होटल व सैरगाह, जो आसानी से खर्च उठा सकते हैं, वे अनावश्यक और फिजूलखर्ची से इसका इस्तेमाल करेंगे। अत: इसका नतीजा यही होगा कि इस संसाधन का लाभ आबादी के अधिकांश लोगों से हट कर कुछेक लोगों के पास आयेगा। ''हर वक्त जल आपूर्ति'' और ''24 घंटे 7 दिन जल आपूर्ति'' के नारों के पीछे यही विचार है कि पानी की दर को उस स्तर तक बढ़ा दो कि जनता पानी के खर्चे को बर्दाश्त न कर सके और उसका उपयोग कम कर दे जबकि कहने के लिये जल ''उपलब्ध'' होगा। मूलरूप से इसका मतलब है कि अगर आप के पास पैसा हो तो कितना भी पानी इस्तेमाल करने की छूट है। यह सर्वव्यापी अधिकार की संकल्पना के विपरीत है क्योंकि यह सबको जल के अधिकार की सुनिश्चिति नहीं करता है।

नीति के मसौदे में उन निजी कंपनियों को सब्सिडी दिया गया है जो दूषित जल का परिष्करण करके उसे दोबारा इस्तेमाल करेंगी। दूसरे शब्दों में, आम लोगों को पानी के लिये ज्यादा पैसा देना पड़ेगा जबकि निजी पूंजीपतियों को, पानी संसाधन दूषित न करने के लिये, सरकार से पैसा मिलेगा!

मज़दूरों, किसानों और सभी मेहनतकश लोगों को राष्ट्रीय जल नीति 2012के मसौदे का विरोध करना चाहिये। इस प्रस्तावित नीति का असली उद्देश्य है कि अपने देश के सभी जल संसाधनों को विक्रय वस्तुओं में बदल दिया जाये, जिससे इजारेदार पूंजीपति अधिकतम मुनाफा बना सकें।

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