मजदूर वर्ग और मेहनतकशों की हिमायत करने वाले अखबार और संगठन बतौर, हम मेहनतकशों के नेताओं से यह सवाल कर रहे हैं कि 20 वर्ष पहले शुरू किये गये सुधारों के परिणामों के बारे में हिन्दोस्तान के मेहनतकशों का क्या विचार है। क्या उन सुधारों से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय को फायदा हुआ है या नुकसान?
मजदूर वर्ग और मेहनतकशों की हिमायत करने वाले अखबार और संगठन बतौर, हम मेहनतकशों के नेताओं से यह सवाल कर रहे हैं कि 20 वर्ष पहले शुरू किये गये सुधारों के परिणामों के बारे में हिन्दोस्तान के मेहनतकशों का क्या विचार है। क्या उन सुधारों से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय को फायदा हुआ है या नुकसान? 16-31 अक्तूबर, 2011 के अंक में हमने हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के महासचिव, कामरेड लाल सिंह से साक्षात्कार के साथ इस श्रृंखला की शुरुआत की थी। पिछले अंकों में हमने अर्थव्यवस्था के बैंक, पोर्ट, रेल चालकों, डाक कर्मचारी यूनियनों, बीमा क्षेत्र, एअर इंडिया इंजीनियर्स एसोसियेशन, वेस्टर्न रेलवे मोटरमैंस एसोसियेशन के नेताओं, वोल्टास एम्प्लॉईज फेडरेशन तथा मेहनतकशों के विभिन्न संगठनों के नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित किये थे। इस अंक में अर्थव्यवस्था के कुछ और क्षेत्रों के मजदूर नेताओं से साक्षात्कार प्रकाशित कर रहे हैं।
चमड़ा उत्पादों के कारीगरों की हालत
चमड़ा उद्योग हिन्दोस्तानी अर्थव्यवस्था में प्रमुखता से स्थान बना रही है। यह जाना-माना निर्यातोन्मुखी उद्योग है। 1999 के आंकड़ों के मुताबिक, चमड़ा उद्योग में लगभग 7 लाख से ज्यादा मजदूर काम करते थे। इसमें कुशलता के आधार पर विभिन्न काम जैसे फ्लाइंग, करिंग तथा कारकेस रिकवरी, टेनिंग तथा फिनिशिंग, जूता, ऊपरी जूता, चप्पल-सेंडल, चमड़े का सामान तथा वस्त्र आदि के अलग-अलग क्षेत्र है। चमड़ा और चमड़े के उत्पादों के लिए प्रमुख उत्पादन केंद्रों तामिलनाडु में चेन्नई, अम्बुर, रानीपेट, वानीयंबादी, तृची, और डींडीगुल; पश्चिम बंगाल में कलकत्ता; उत्तर प्रदेश में कानपुर और आगरा; पंजाब में जालंधर; कर्नाटक, बैंगलोर तथा दिल्ली और आंध्र प्रदेश में हैदराबाद में स्थित हैं।
इस अंक में मजदूर एकता लहर दिल्ली के लेदर गारमेंट एक्सपोर्ट उद्योग में काम करने वाले कारीगरों के काम की हालतों पर सूचना दे रही है। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव और फरीदाबाद में 1.25 लाख के करीब लेदर गारमेंट कारीगर हैं। लेदर गारमेंट में काम करने के लिए एक कारीगर को कुशलता और अनुभव की जरूरत होती है। उसे चमड़े पर सिलाई में निपुणता ही नहीं बल्कि पेस्टिंग में भी निपुणता हासिल करनी पड़ती है। ये कारीगर अपने औजार – सिलाई मशीन और हथौड़े के माध्यम से साधारण से चमड़े को बहुत सुन्दर वस्तु का आयाम देते हैं। ये उत्पाद ज्यादातर निर्यात हेतु होते हैं। कारीगरों के काम की हालत पर नज़र डालने के लिए दिल्ली लेदर कारीगर संगठन के अध्यक्ष का. अतीक से म.ए.ल. के संवाददाता मिले और साक्षात्कार लिया है, जो पेश है :
मएल : आप खुद भी एक लेदर कारीगर और संगठनकर्ता हैं। आपके अनुभव में एक कारीगर को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?
का. अतीक : लेदर कारीगरों को पर्याप्त काम न होना आज बड़ी समस्या है। प्रति पीस सिलाई/बनायी की दर में कटौती हो रही है। ऊपर से महंगाई है। इसके अलावा, गिरती आय, काम के घंटों में बढ़ोतरी, सामाजिक सुरक्षा का अभाव आदि कुल मिलाकर लेदर कारीगर के सामने रोजी-रोटी की अनिश्चितता हमेशा से रही है।
निजीकरण, उदारीकरण के जरिये भूमंडलीकरण की नीति ने उपरोक्त समस्याओं को और जटिल कर दिया है। इस क्षेत्र में बड़ी-बडी पूंजीवादी निर्यातोन्मुखी कंपनियां, उत्पादन को ठेके और उप-ठेके के जरिये कराती हैं। हर ठेकेदार (फैब्रीकेटर), प्रति पीस पर अपना मुनाफा तय करके कारीगरों को कम से कम दर पर पीस बनाने के लिए देता है।
उदाहरण के लिए, निर्यातक कंपनी को एक विदेशी खरीददार (बायर) से हजारों की संख्या में 2,400 रुपये प्रति चमड़े की फुल स्कर्ट बनाने का ठेका मिलता है। निर्यातक कंपनी रॉ मेटेरियल के साथ, प्रति फुल स्कर्ट बनवाई मूल्य 720 रुपये पर उप-ठेका छोटे-छोटे ठेकेदारों (फेब्रीकेटर) को देता है। ये ठेकेदार, प्रति फुल स्कर्ट बनवाने के लिए मात्र 90से लेकर 120रुपये लेदर कारीगरों को देते हैं। जबकि बायर उसे 11,250रुपये में बेचता है।
मएल : एक लेदर कारीगर की महीने की आय कितनी होती है?
का. अतीक : इसमें अनुमान ही लगाया जा सकता है। चूंकि ज्यादातर मजदूर पीस रेट पर काम करते हैं। औसतन 3000से लेकर 3500रुपये महीना कमा लेते हैं।
मएल : इतना कम?
का. अतीक : इस क्षेत्र में मात्र साल में 4महीने और ज्यादा से ज्यादा 5महीने ही काम होता है। जो स्थायी कारीगर हैं, उन्हें न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता है।
मएल : दिल्ली के अंदर कहां-कहां लेदर गारमेंट इकाईयां हैं?
का. अतीक : दक्षिणी दिल्ली में ओखला औद्योगिक क्षेत्र, गोविन्दपुरी, संगम विहार, खानपुर, देवली, मोडलबंद, तुगलकाबाद विस्तार, दुर्गाबिल्डर, बदरपुर, शाइन बाग। पश्चिम में कापसहेड़ा। उत्तर में मंगलापुरी, मायापुरी, सागरपुर, नारायणा, वजीरपुर। पूर्व में शहादरा, घोंडा, जाफराबाद, धर्मपुरी और न्यू सीलमपुर आदि। दिल्ली के अलावा, देश के अन्य शहरों में भी लेदर गारमेंट का काम होता है।
मएल : लेदर के किस प्रकार के उत्पाद मुख्यत: बनायें जाते हैं?
का. अतीक : इनमें मुख्यत: लेडीस तथा जैंट्स वियर्स जैकेट, कोट, लोंग कोट, वेस्ट कोट, पैंट, स्कर्ट, शर्ट इत्यादि तैयार किये जाते हैं। इनमें स्वैट (भेड़ के बच्चे की खाल), शीटनापा (भेड़ की खाल) तथा काउनापा (गाय की खाल) के चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है।
मएल : इस क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों को श्रम कानूनों से कितनी सुरक्षा प्राप्त होती है?
का. अतीक : 75 प्रतिशत से ज्यादा उत्पादन इकाईयां रिहायशी क्षेत्रों में चलायी जाती हैं। ज्यादातर छोटी-छोटी इकाई हैं जिनमें 20-30 मशीनों वाली होती हैं। ये एक बड़े से कमरेनुमा में चलायी जाती हैं, जहां कोई श्रम कानून लागू नहीं होता है। यहां मजदूरों का कोई रिकार्ड नहीं मिलता। शत-प्रतिशत मजदूर पीस रेट पर काम करते हैं। औद्योगिक क्षेत्र में स्थित कंपनियों में काम करने वाले 25 प्रतिशत मजदूर होंगे। उनमें से भी सिर्फ 8 प्रतिशत मजदूरों को ही श्रम कानून के तहत सामाजिक सुविधा, ई.एस.आई. की चिकित्सा सेवा प्राप्त होती है। बाकी 15प्रतिशत अस्थायी तौर पर रखे जाते हैं। ऐसे में श्रम कानून का पालन कल्पना से परे है।
मएल : मजदूर ज्यादातर किन समस्याओं के लिए लड़ते हैं?
का. अतीक : पहला, प्रति पीस रेट बढ़ाने की मांग को लेकर लड़ते हैं। संगठन के पास ज्यादातर मजदूर नौकरी से निकाले गये, रूके हुए वेतन तथा फैक्ट्रियों को बंद करने की शिकायत को लेकर आते हैं। श्रम विभाग तथा न्यायालय तक केस को ले जाते हैं। लेकिन अधिकतर मामलों में न्याय नहीं मिल पाता है।
मएल : अपनी मांगों को लेकर कारीगर हड़ताल करते हैं तो उसका क्या परिणाम निकलता है?
का. अतीक : हड़ताल जरूर एक अंतिम शस्त्र होता है, मजदूरों के पास। लेकिन यह स्थायी समाधान बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए, लेदर कारीगर अपनी एकता के बल पर प्रति पीस दर में और 2 रुपये बढ़ाने की मांग को लेकर उत्पादन को ठप्प करता है। यदि उसको पूंजीपति 2 रुपये दे भी देता है तो उसकी जिंदगी में फर्क आ जाता है, क्या? मेरी समझ में बिल्कुल नहीं! वह इसलिए, क्योंकि महंगाई उसे वापस ले लेती है। हम लड़ें अवश्य लेकिन मजदूरों को यह समझने की जरूरत है कि आखिर इस व्यवस्था में समस्या क्या है कि इतनी मेहनत करने के बावजूद उसकी व परिवार की अच्छी जिंदगी मोहताज रही है।
मएल : आपकी समझ क्या कहती है?
का. अतीक : मेरी समझ में तो यह व्यवस्था मात्र पूंजीपतियों के हित में चलायी जाती है, जिसके वे मालिक हैं। पूरी व्यवस्था मजदूर वर्ग की लूट पर आधारित है। मजदूरों का संघर्ष फौरी आर्थिक जरूरत भर से संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि मजदूर वर्ग को राज तक पहुंचाने का सफर भी उसे तय करना होगा।
- यह आंकड़ा, पीयूडीआर के द्वारा 2004में प्रकाशित रिपोर्ट 'बीहाईंड द लेबल' से लिया गया है।
- यह पैरा, पी.यू.डी.आर. के द्वारा 2004में प्रकाशित रिपोर्ट 'बीहाईंड द लेबल' में दिये गये आंकड़े पर आधारित है।