हिन्दोस्तान के राष्ट्रपति ने राजीव गाँधी हत्याकांड के तीन आरोपियों की क्षमा याचिका ठुकरा दी, जिन्हें अदालतों ने “षडयंत्र में शामिल” होने के लिए दोषी करार दिया था। इसके तुरंत बाद घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ा। तमिलनाडु विधानसभा ने इसका विरोध करते हुए एकमत से प्रस्ताव पारित किया और राष्ट्रपति से इस पर पुनःविचार करने की याचना की। मद्रास उच्च न्यायलय ने फांसी के तारीख को दो सप्ताह के लिए
हिन्दोस्तान के राष्ट्रपति ने राजीव गाँधी हत्याकांड के तीन आरोपियों की क्षमा याचिका ठुकरा दी, जिन्हें अदालतों ने “षडयंत्र में शामिल” होने के लिए दोषी करार दिया था। इसके तुरंत बाद घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ा। तमिलनाडु विधानसभा ने इसका विरोध करते हुए एकमत से प्रस्ताव पारित किया और राष्ट्रपति से इस पर पुनःविचार करने की याचना की। मद्रास उच्च न्यायलय ने फांसी के तारीख को दो सप्ताह के लिए स्थगित करने का आदेश दिया।
इस बीच दो अन्य मामलों में जहां क्षमा याचिका पर फैसला होना है, उनको लेकर राजनीतिक तूफ़ान उठा है।
पंजाब में लोग मांग कर रहे हैं कि प्रोफ़ेसर भुल्लर को फांसी की सजा से मुक्त किया जाये। प्रोफ़ेसर भुल्लर को कई साल पहले फांसी की सजा सुनाई गयी थी, और इस समय एक मानसिक रोगों के अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। उन पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने 1993 में युवा कांग्रेस नेता एम.एस. बिट्टा पर कार बम हमला आयोजित कराया था। पंजाब पुलिस ने उनका कबूलनामा यातना और मौत की धमकी देकर बनाया था। दरअसल तीन सदस्यीय न्यायपीठ के मुख्य न्यायाधीश ने इस कबूलनामे को स्वीकार करने से इंकार किया और प्रोफ़ेसर भुल्लर को बेगुनाह करार दिया था। लेकिन अन्य दो न्यायाधीशों ने उन्हें मौत की सजा सुनाई। एम.एस. बिट्टा आज जीवित है लेकिन प्रोफ़ेसर भुल्लर को फांसी होगी। अकाली दल, आल इंडिया सिख स्टूडेंट फेडरेशन और पंजाब में कांग्रेस पार्टी के कुछ धड़ों का कहना है कि प्रोफ़ेसर भुल्लर को इस षडयंत्र में शामिल होने के झूठे आरोप पर सजा दी जा रही है जबकि असली षडयंत्रकारियों को छोड़ दिया गया है। वे सवाल उठा रहे हैं कि षडयंत्र में केवल एक व्यक्ति कैसे शामिल हो सकता है?
अफज़ल गुरु को 10 साल पहले संसद पर हुए हमले के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गयी थी, इसका कश्मीर घाटी में व्यापक तौर पर विरोध हुआ है। अफज़ल गुरु पर यह आरोप लगाया गया है कि उसने आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल की गयी गाड़ी का इंतजाम किया था। तीनों ही आतंकवादी मारे जा चुके है। कश्मीर घाटी में यह सभी जानते हैं कि अफज़ल गुरु राजकीय आतंकवाद का शिकार है। नब्बे के दशक में, एक गिरफ्तार किये गए भूतपूर्व उग्रवादी होने के तौर पर, उसे सुरक्षा एजेंसियां द्वारा जबरदस्ती से उनके काम के लिए इस्तेमाल किया गया था। संसद पर हमले के मामले में चल रहे मुकदमे में यह साफ़ था कि उसे अनंतनाग के एस.पी. द्वारा दिल्ली में कुछ लोगों के लिए एक गाड़ी का इंतजाम करने के विशेष निर्देश देकर भेजा गया था। इसके अलावा उस हमले की कोई और जानकारी नहीं थी। अफज़ल गुरु या किसी और के खिलाफ षडयंत्र का कोई भी मामला साबित नहीं किया जा सका। इसमें शामिल एस.पी. की कोई तहकीकात नहीं की गयी। दरअसल इस हमले को किसने आयोजित किया यह बात पूरे मुकदमे के दौरान सामने आई ही नहीं। देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अफज़ल को बलि का बकरा बनाया गया और यह तर्क दिया गया कि देश के “सामूहिक ज़मीर” को, किसी को सजा देकर ही, शांत किया जा सकता है। जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने यह सवाल पेश किया कि यदि जम्मू और कश्मीर की विधान सभा ने भी तमिलनाडु की विधान
सभा की तरह, अफज़ल गुरु को माफ़ी दी जाने का प्रस्ताव पारित किया तो क्या होगा?
इन तीनों मामलों में क्या समानता है? इन तीनों मामलों में आरोपियों को राजनीतिक गुनाहों के लिए फांसी की सजा दी गयी है। राजीव गांधी की हत्या ऐसे समय पर हुई जब श्री लंका में ईलम में चल रही बग़ावत को कुचलने में, श्री लंका की सेना की मदद के लिये हिन्दोस्तानी शक्ति बहाली सेना के भेजे जाने के विरोध में पूरे तमिलनाडु की जनता विद्रोह कर रही थी, बेमिसाल आपरेशन ब्लू स्टार तथा 1984 में सिखों की हत्या के बाद, पंजाब में बेमिसाल राजकीय आतंकवाद फैला हुआ था और पंजाब पुलिस ने हजारों बेकसूर सिख नौजवानों की हत्या की थी। कश्मीर घाटी में बीते 2दशकों में सेना द्वारा 70,000 बेकसूर लोग मारे गये हैं।
इन तीनों मामलों में सामान्य यह बात है कि ट्रायल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, सभी अदालतों ने राज्य द्वारा मनगढंत सबूत के आधार पर राजनीतिक फैसले सुनाये। सत्ताधारी वर्ग ने लोगों की भावनाओं को भड़काया और न्यायालयों ने उसके मुताबिक सजा सुनाई। न्यायालयों के ये फैसले राजकीय आतंकवाद की नीति की ही निरंतरता है, जो कि हिन्दोतानी राज्य इन इलाकों के लोगों के खिलाफ़ चलाता रहा है।
हमारे देश के लोग न्याय की इस अवहेलना, या यूँ कहिये, उसके अभाव, को देख सकते हैं। एक ओर आम लोगों को किसी सबूत के अभाव में या रत्तीभर आशंका के आधार पर कि वह कत्ल करने के षडयंत्र का हिस्सा है, फांसी की सजा सुनाई जाती है। दूसरी ओर यह सभी जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व ने 1984 में सिखों का कत्लेआम आयोजित किया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम आयोजित किया। इन नरसंहारों को आयोजित करने वाले आज खुले घूम रहे हैं और राज्य व्यवस्था और राजनीतिक जीवन में सर्वोच्च पदों पर विराजमान हैं। पुलिस और सुरक्षाकर्मी जो फरेबी मुठभेड़ की घटनाओं को अंजाम देते हैं, उन्हें मेडल और पदोन्नति से पुरस्कृत किया जाता है। सेना के जवान जिन्होंने कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्यों में बलात्कार किये और हजारों का कत्लेआम किया है, उन्हें सुरक्षा बल (विशेष अधिकार) कानून (ए.एफ.एस.पी.ए.) के तहत किसी भी नागरिक अपराधी मुकदमे से छूट दी जाती है, उन्हें खुला छोड़ दिया जाता है, और पुरस्कार भी दिया जाता है! दूसरे शब्दों में, गुनहगारों को सजा नहीं मिलती।
सत्ताधारी वर्ग के कुछ तबके, खास तौर से तमिलनाडु, पंजाब और कश्मीर में, प्रस्तावित फांसी का विरोध कर रहे हैं, और उनकी सजा को उम्र कैद में बदलने की मांग कर रहे हैं। यह इस बात को उजागर करता है कि इन राज्यों में लोग यह मानते हंै कि आरोपियों के साथ नाइंसाफी की जा रही है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व से सेना और अर्ध सैनिक बलों और अन्य सुरक्षा बलों को हटाने की मांग और सजा न होने की गारंटी के चलते इन बलों के सैनिकों द्वारा किये जा रहे खुलेआम बलात्कार और हत्या को खत्म करने की मांग को लेकर चल रहा संघर्ष, लोगों की भावना और मनोदशा को साफ दर्शाता है।
राजकीय आतंकवाद सत्ताधारी वर्ग के हाथों में लोगों के प्रतिरोध को कुचलने और बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के हितों में नीतियों को आगे बढ़ाने का सबसे पसंदीदा हथियार है। हमारे लोगों का बरसों का अनुभव यही दिखाता है। राज्य न केवल समय-समय पर सांप्रदायिक कत्लेआम आयोजित करता है, बल्कि वह निरंतर लोगों के बीच सांप्रदायिक भावना भड़काता है और इस तरह का माहौल तैयार करता है जिसमें कत्लेआम को जायज़ साबित किया जा सके। सत्ताधारी वर्ग की पार्टियां और उनके नेता जिन्होंने हजारों-हजारों लोगों की मौत और तबाही आयोजित की हैं, जिसका अखंडनीय सबूत सबके सामने है, ऐसे नेताओं को मौजूदा व्यवस्था में न तो गुनहगार साबित किया जाता है और न ही उनको सजा होती है, क्योंकि गुनहगार, न्यायाधीश और जल्लाद, सभी इस व्यवस्था को बरकरार रखने में भागीदार हैं। इसके ठीक विपरीत, हज़ारों बेगुनाह लोगों को जेल में बंद किया जाता है, उन्हें उत्पीडि़त किया जाता है और केवल शक के आधार पर कई सालों के लिए जेल में तड़पाया जाता है, जबकि उनके खिलाफ़ कोई भी ठोस सबूत नहीं होता है। दरअसल, इन फांसी की सजाओं को लोगों के बीच सांप्रदायिक तनाव भड़काने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि अफज़ल गुरु के मामले में साफ़ नजर आता है।
इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, हिदोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी यह मांग करती है कि इन तीनों मामलों में फांसी की सजा रद्द की जाये। इन मामलों में आरोपियों को राजनीतिक आधार पर और बिना किसी ठोस सबूत के, सजा सुनाई गयी है। दूसरी ओर कश्मीर और उत्तर-पूर्व में राजकीय आतंकवाद के दोषियों, 1984 में सिखों के कत्लेआम के गुनहगारों, और 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के दोषियों को सजा दी जानी चाहिये। राजकीय आतंक के खिलाफ़ और गुनहगारों को सजा दिलाने का संघर्ष बिना किसी रुकावट के, निरंतर चलाया जाना चाहिये।