जनता के विरोध-प्रदर्शन पर गोलियां बरसाने वाली सरकार मुर्दाबाद!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र इलाका समिति का बयान, अगस्त 2011

अलग-अलग दांवपेंचों के बावजूद जब जनता का विरोध बढ़ता ही जाता है तो उसे ज़बरदस्ती से पैरों तले रौंदने के लिए गोलियों का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार राज्य में या केंद्र में क्यों न हो, यही दिखायी देता है। महाराष्ट्र हो या उत्तर प्रदेश, गुजरात हो या ओडि़सा, तमिलनाडु हो य

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र इलाका समिति का बयान, अगस्त 2011

अलग-अलग दांवपेंचों के बावजूद जब जनता का विरोध बढ़ता ही जाता है तो उसे ज़बरदस्ती से पैरों तले रौंदने के लिए गोलियों का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार राज्य में या केंद्र में क्यों न हो, यही दिखायी देता है। महाराष्ट्र हो या उत्तर प्रदेश, गुजरात हो या ओडि़सा, तमिलनाडु हो या पश्चिम बंगाल-केरला-बिहार या छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर हो या मणिपुर-त्रिपुरा हो, सभी जगह की जनता का यही अनुभव है।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र इलाका समिति का बयान, अगस्त 2011

9 अगस्त के दिन, तलेगांव के नज़दीक मावल में, प्रदर्शन करने वाले किसानों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा कर, राज्य ने अपना असली फासीवादी चेहरा फिर दिखा दिया। उस गोलीबारी में दर्जनों घायल हुए तथा 3 किसानों की मृत्यु हुई। उस गोलीबारी की छवियां जो अख़बारों में छपी हैं, उनसे साफ होता है कि पूरी सोच समझ से तथा जान-बूझकर गोलियां चलाई गयी थीं, और वह भी जान लेने के इरादे से!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, सरकार की इस फासीवादी, क्रूर कार्यवाही का बड़े क्रोध के साथ निंदा करती है। मज़दूर वर्ग की सोच के अनुसार, एक पर हमला यानि सब पर हमला है!

सन् 1972 से पवना बांध बना है। उस बांध की वजह से जो पानी उपलब्ध है, उसमें से ज्यादातर हिस्सा, यानि कि करीब 85 प्रतिशत, पिंपरी-चिंचवाड़ा शहर के लिए तथा केवल 12 प्रतिशत खेती के लिए निर्धारित करने की घोषणा कुछ साल पहले महाराष्ट्र सरकार ने की। तब से इर्द-गिर्द के इलाकों के किसान उसका विरोध कर रहे हैं। पवना बांध बनाने के लिए हज़ारों किसानों की ज़मीन सरकार ने 40साल पहले ज़बरन हथिया ली थी। उन्हें न ही जायज मुआवजा मिला और न ही दूसरी ज़मीन। “सब दर्द भुगतने के बावजूद, हमें उसके फायदे से वंचित रखा जा रहा है। यह हमें मंजूर नहीं है” यह उनका कहना है। “42साल पहले किये गये वादे पहले निभाओ!” अपनी इन मांगों के लिए उन्होंने कई बार प्रदर्शन किये हैं तथा निवेदन दिये हैं। फिर भी सरकार ने पाइप लाइन डालने का काम ज़बरन शुरू किया। तब किसान सड़कों पर आए और जवाब में मिली उन्हें फासीवादी राज्य की गोलियां!

इस गोलीबारी की सच्चाई को छिपाना जब नामुमकिन हुआ, तब हमेशा की तरह सरकार ने न्यायायिक जांच की घोषणा की तथा कुछ पुलिस कर्मियों को सस्पेंड कर दिया। महाराष्ट्र के मंत्रीगण तथा कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि “वह गोलीबारी एक बदकिस्मत वारदात थी।”

पहले दमन चलाओ, दफ़ा 144, यानि कि जमावबंदी जारी करो, विशिष्ट सेवाओं को ”अत्यावश्यक सेवाएं” करार दो, विरोधियों में से प्रमुख कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लो, और फिर भी जनता का प्रक्षोभ अगर नहीं थमता तो सीधी गोली चलाओ, यही नीति राज्य अपनाता है। अगर दमन की सच्चाई छिप नहीं पाई तो राज्य यही दिखाने की कोशिश करता है कि कुछ पुलिस अधिकारियों, सेना अधिकारियों या सरकारी अधिकारियों की गलती से ज्यादती हुई, और फिर शुरू होता है जाँच समिति का तमाशा! मगर असलियत तो यही है कि हिन्दोस्तानी राज्य ही फासीवादी है।

क्या जायज़ मांगों के लिए हड़ताल करने वाले एयर इंडिया के पाइयट, देश भर के इंजन ड्राइवर, बिजली कर्मचारी, डाक्टर, नर्सें, शिक्षकों का अनुभव यही नहीं है? क्या देश भर के करोड़ों मज़दूर, गुड़गांव के मज़दूर भाइयों के साथ हुआ जलियांवाला बाग भूल सकते हैं? जैतापुर तथा देश के अन्य इलाकों में परमाणु बिजली योजनाओं के खि़लाफ़ लड़ने वालों पर भी राज्य ने क्या गोलियां नहीं बरसाई? ओडि़सा में पॉस्को के खि़लाफ़ 15 साल से भी ज्यादा संघर्ष करने वाले आदिवासियों ने, और पूरे देश भर में ’सेज़’ तथा अन्य योजनाओं के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले लाखों किसानों ने क्या राज्य का यह फासीवादी रूप नहीं देखा है?

देशवासियों,

अलग-अलग दांवपेंचों के बावजूद जब जनता का विरोध बढ़ता ही जाता है तो उसे ज़बरदस्ती से पैरों तले रौंदने के लिए गोलियों का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार राज्य में या केंद्र में क्यों न हो, यही दिखायी देता है। महाराष्ट्र हो या उत्तर प्रदेश, गुजरात हो या ओडि़सा, तमिलनाडु हो या पश्चिम बंगाल-केरला-बिहार या छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर हो या मणिपुर-त्रिपुरा हो, सभी जगह की जनता का यही अनुभव है। इससे स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र का नकाब ओढ़े, टाटा, अम्बानी, बिड़ला आदि पूंजीपतियों के हित में तानाशाही, यही हिन्दोस्तानी राज्य का असली रूप है।

इस तानाशाही के खि़लाफ़, मज़दूरों, किसानों, बुद्धिजीवियों तथा जनतांत्रिक ताकतों को एकता तथा दृढ़ता से संघर्ष करना होगा!

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