हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के केन्द्रीय समिति का बयान, 18 अगस्त, 2011
15 अगस्त की शाम से दिल्ली तथा देश के अन्य अनेक जगहों पर आम जनता की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए हिन्दोस्तान की सरकार ने अपने सुरक्षा बल तैनात किये। 16 अगस्त को सुबह-सुबह, पूर्वनियोजित तरह से, गृह मंत्रालय की कमान में सुरक्षा बलों ने अन्ना हज़ारे तथा आंदोलन के अन्य नेताओं को पकड़ कर ''निरोध हिरासत'' में रखा। उसके साथ समर्थन जताने वालों में से हज़ारों लोगों को भी गिरफ्तार किया गया।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के केन्द्रीय समिति का बयान, 18 अगस्त, 2011
15 अगस्त की शाम से दिल्ली तथा देश के अन्य अनेक जगहों पर आम जनता की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए हिन्दोस्तान की सरकार ने अपने सुरक्षा बल तैनात किये। 16 अगस्त को सुबह-सुबह, पूर्वनियोजित तरह से, गृह मंत्रालय की कमान में सुरक्षा बलों ने अन्ना हज़ारे तथा आंदोलन के अन्य नेताओं को पकड़ कर ''निरोध हिरासत'' में रखा। उसके साथ समर्थन जताने वालों में से हज़ारों लोगों को भी गिरफ्तार किया गया।
गृह मंत्री चिदम्बरम का दावा है कि निरोध गिरफ्तारियां न्यायोचित हैं क्योंकि अन्ना के दल ने दिल्ली पुलिस द्वारा प्रतिपादित की गयी शर्तों की लंबी सूचि मान्य नहीं की। उनमें से एक शर्त थी कि प्रमुख स्थान पर 5000 से ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं होंगे। दूसरी शर्त थी कि प्रतिरोध 3दिनों तक सीमित रहेगा। गृहमंत्री का दावा है कि जबकि एक नागरिक को प्रतिविरोध करने का अधिकार है, उसे पुलिस द्वारा थोपे गये ''यथोचित प्रतिबंधों'' के दायरे में रहना चाहिए।
क्या यह यथोचित है कि विद्यमान भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ़ जारी लोकप्रिय आंदोलन को, एक ऐसे आंदोलन को जिसने सब लोगों को शामिल होने का आह्वान किया है, मानना चाहिए कि राजधानी में 5000 से ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं होंगे, और प्रतिरोध पर 3 दिनों की सीमा रहेगी? क्या यह मुनासिब है कि कोई भी स्वाभिमानी आंदोलन ऐसे नियम मान्य करेगा? जी नहीं, यह बिल्कुल अमान्य है। यह बिल्कुल यथोचित नहीं है कि सत्ताधारी अपनी सत्ता के विरोधियों पर प्रतिबंध थोपें और यह दावा करें कि यह राष्ट्रीय हित के लिए तथा सकल घरेलू उत्पाद के संवर्धन के लिएआवश्यक है।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी ज़मीर के अधिकार तथा विरोध के अधिकार को नकारने की केन्द्र सरकार की फासीवादी कृतियों की भर्त्सना करती है!
राजधानी तथादेशभर के लोगों द्वारा इसके विरोध में आगे आने के सामने केन्द्र सरकार को थोड़े काल के लिए पीछे हटना ही पड़ा। प्रतिरोध को 15 दिनों तक चलने देना मान्य करना पड़ा और प्रतिरोधकारियों की संख्या पर प्रतिबंध लगाने से भी हटना ही पड़ा।
हिन्दोस्तन की राजनैतिक आज़ादी की 64वीं सालगिरह के अवसर पर 15 अगस्त को लाल किले से दिये गये अपने भाषण में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने अपने देश के प्रचलित मार्ग का विरोध करने वाले सब लोगों पर यह आरोप लगाया कि वे हिन्दोस्तान के प्रगति पथ पर रोड़ा हैं। अमरीका तथा यूरोप में जो संकट है और उत्तरी अफ्रिका तथा पश्चिमी एशिया की गतिविधियों का संदर्भ देकर अपने देश के लोगों के संघर्षों पर उन्होंने हमला किया, यह कह कर कि कई शक्तियां हिन्दोस्तान को अस्थिर करने कीकोशिशें कर रही हैं। पूंजीवादी इज़ारेदारों की बढ़ती संपत्ति और वैश्विक स्तर का उन्होंने हिन्दोस्तान की प्रगति, के साथ समीकरण किया। उन्होंने लोगों की मांग को अमान्य किया कि शासन प्रणाली में, देश के कानून तय करने में तथा महत्वपूर्ण जनता संबंधित निर्णय लेने में लोगों की सुनवाई होनी चाहिए।
जनता के विरोध के खिलाफ़ हमलों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं का दावा है कि ''कानून और व्यवस्था'' रखने के लिए वे अनिवार्य थे। अतीत में बर्तानवी उपनिवेशवादी सत्ताधारियों ने भी यही तर्क इस्तेमाल किया था। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे अपने इंकलाबी शहीदों पर उन्होंने इल्ज़ाम लगाया कि वे बर्तानवी हिन्दोस्तान के प्रगति पथ में रोड़ा थे। बर्तानवी शासकों ने उनका ज़मीर का अधिकार और जीने का अधिकार भी छीन लिया। उनको आतंकवादी कह कर उनकी निंदा की।
आज ''भूरे रंग के साहिब लोग'' आज़ाद हिन्दोस्तान की सरकार में हैं। विरोध करने वालों पर वे इल्ज़ाम लगा रहे हैं कि वे प्रगति पथ पर रोड़ा हैं, कि वे हिन्दोस्तान की तेज उन्नति को रोक रहे हैं।
आसमान छूती खाद्य पदार्थों की कीमतें, इज़ारेदार पूंजीपति और उनकी जेबों में रहने वाले मंत्री-संत्री तथा अधिकारियों द्वारा जनता की संपत्ति की लूट, और उसके साथ-साथ मज़दूरों के अधिकारों पर हमले तथा किसानों और आदिवासियों की भूमि का ज़बरदस्ती से अधिग्रहण, इन सबके खिलाफ़ आज लाखों लोग सड़कों पर उतर कर विरोध कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़ी हेकड़बाजी से कहते हैं कि सिर्फ़ संसद ही देश के कानूनों को निर्धारित कर सकती है। लोगों को बस सरकार तथा संसदीय पार्टियों को प्रार्थना पत्र देने का अधिकार है। लोग कानून और नीतियां निर्धारित नहीं कर सकते। उन्हें खुद का भविष्य तय करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। वे विरोध कर सकते हैं, लेकिन सिर्फ़ उस दायरे में जो सत्ताधारी निर्धारित करते हैं।
उपनिवेशवादियों ने घोषित किया था कि हिन्दोस्तान के ऊपर राज्य करने का और उसको लूटने का अधिकार उनका था क्योंकि वे सभ्य थे, जबकि उनका आरोप था कि हमारे देश के लोग खुद पर राज्य करने के काबिल नहीं हैं। आज संसदीय लोकतंत्र के उत्साही समर्थकों का दावा है कि उन्हें राज्य करने का तथा हमारी भूमि और श्रम को लूटने का अधिकार है तथा सब विरोधों पर ''यथोचित प्रतिबंध'' थोपने का अधिकार है क्योंकि 1950 के हिन्दोस्तान के संविधान में ऐसा लिखा है। ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग इसको मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
बड़े पूंजीपतियों के लिए जब नीतियां पुरानी हो जाती हैं और उनके काम के नहीं रहती, तब आर्थिक नीतियों को अगर बदला जा सकता है, तब 60 साल पुराना संविधान बदलने में क्या बुराई है? खुद पर राज्य करने के अधिकार सहित लोगों के अधिकार अलंघनीय हैं, ऐसा घोषित करने वाला नया संविधान क्यों नहीं होना चाहिए? इस सवाल पर जनमत क्यों नहीं लिया जा सकता?
संसद में जो विरोधी पक्ष हैं, वे कुटिल चाल चल रहे हैं। प्रतिरोध के अधिकार के समर्थक होने का वे नाटक कर रहे हैं, लेकिन उन का मकसद सिर्फ़ कांग्रेसपार्टी को हटा कर उसकी जगह खुद सत्ता पर आने का है। कांग्रेस पार्टी के साथ उन का इस बात पर पूरा एकमत है कि संसद सर्वोच्च है और निर्णय लेने में लोगों की कोई भी भूमिका नहीं हो सकती।
अपने देश की भूमि और श्रम की लूट से किसको सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा, इस बात पर इज़ारेदार पूंजीपतियों के आपस बीच आज बड़े झगड़े हैं। ये अंतर्विरोध इस बात से स्पष्ट होते हैं कि विविध पूंजीपति गुट जनता के प्रतिरोधों के बारे में परस्पर विरोधी भूमिकाएं ले रहे हैं। हम इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि अमरीकी साम्राज्यवादी हिन्दोस्तानी सरकार को ऐेलान कर रहे हैं कि विरोधों के सामने उसे ''आत्म नियंत्रण रखना चाहिए'' लोगों को इस बात पर ज़रूर चिंतन करना चाहिए कि लिबिया, अफ़गानिस्तान तथा पाकिस्तान पर बमबारी करने वाले तथा दुनिया भर का हाहाकार मचाने वाले ऐसे विचार क्यों व्यक्त कर रहे हैं।
यह आम जानी-मानी है कि अमरीका की अगुवाई में साम्राज्यवादी एजेंसियां, एशिया और दुनिया भर के जन आंदोलनों में घुसपैठ करती हैं। पीली, नारंगी तथा और रंगों की तथाकथित क्रांतियों को अमरीकी साम्राज्यवाद ने ही तो संगठित किया था। उसका मकसद था ऐसी हुकूमतों को स्थापित करना जो वाशिंगटन की ताल पर नाचे, जो उसके भौगोलिक राजनैतिक ध्येयों के काम आए। आज वह तुनिसिया तथा मिस्र के जन आंदोलनों में टांगअड़ा रहा है।
मुद्दा यह है कि विदेशी दखलअंदाज़ी का विरोध करने में हिन्दोस्तानी सरकार अटल नहीं है। पाकिस्तान तथा अफ़गानिस्तान में हस्तक्षेप करने में वह हमेशा अमरीका के साथ सहयोग करती है। जब चाहे तब ''विदेशी हाथ'' के खिलाफ़ आवाज़ उठाती है, जैसा कि अब हो रहा है। यह हिन्दोस्तान-अमरीका के आपसी संबंधों के साम्राज्यवादी स्वभाव को प्रतीत करता है, जिस में सहयोग होता है और स्पर्धा भी।
संसदीय पार्टियों की चालों के बारे में, विविध पूंजीपतियों के गुटों की चालों के बारे में, और अमरीकी तथा हिन्दोस्तानी साम्राज्यवाद की भौगोलिक राजनैतिक चालों के बारे में, लोगों को सचेत रहना चाहिए, बुध्दू नहीं बनना चाहिए। विरोध करने के अधिकार की, सार्वजनिक स्थलों पर इकट्ठा होने के अधिकार की तथा भ्रष्ट और शोषक व्यवस्था के बारे में चर्चा करने के तथा उसको बदलने के अधिकार की हिफ़ाज़त करने पर हमें एकाग्रता से लगे रहना चाहिए।
बल तथा संपत्ति की इज़ारेदारी का जो अंत करना चाहते हैं और विद्यमान व्यवस्था तथा प्रातिनिधित्व लोकतंत्र की राजनैतिक प्रक्रिया को जो बरकरार रखना चाहते हैं, इन के बीच आज ऐतिहासिक संघर्ष हो रहा है।
सत्ताधारी चाहते हैं कि हर प्रकार के विरोध को अपराध ठहराया जाये। इसी मनमोहन सिंह सरकार ने पहले सशस्त्र संघर्ष को अपराध घोषित कर दिया था। अब तो वह कह रही है कि संघर्ष अहिंसक भी अपराध है। गृह मंत्रालय की अगुवाई में जो फासीवादी आक्रमण हो रहा है, उस के खिलाफ़ लड़ने के लिए विरोध के अधिकार की हिफ़ाज़त आवश्यक है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष, यह अपने देश की राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को बदलने के संघर्ष का एक अभिन्न हिस्सा है। इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण तथा तात्कालिक ध्येय है संसद से वह अधिकार वापस लेना जो लोगों से छीना गया है – अर्थात संप्रभुता या निर्णय लेने का सर्वोच्च अधिकार।
निर्णय लेने की ताकत लोगों के हाथों में लाने का कार्यक्रम ज़िंदाबाद!
इंकलाब ज़िंदाबाद!